तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

सोमवार, अगस्त 27, 2012

केजरीवाल ने कर दी भाजपा की बोलती बंद


समाजसेवी अन्ना हजारे के खास सिपहसालार अरविंद केजरीवाल ने देश की राजधानी दिल्ली सहित अनेक शहरों में विरोध प्रदर्शन करवा कर जहां कांग्रेस सरकार पर एक और हमला बोला, वहीं प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के मुंह पर भी कालिख पोत दी। आंदोलन को अब क्रांति की संज्ञा देने वाले केजरीवाल को कितनी कामयाबी मिलेगी, यह तो वक्त ही बताएगा, मगर उन्होंने विदाई की दहलीज पर खड़ी कांग्रेस को तो एक धक्का और दिया ही, भाजपा के आगमन पर भी ब्रेक लगाने की कोशिश की है। कहते हैं न कि जहां सत्यानाश, वहां सवा सत्यानाश, कांग्रेस को इस मुहिम से उतना नुकसान नहीं हुआ, जितना भाजपा को। कांग्रेस तो पहले से बदनाम है, भाजपा भी बदनाम हो गई। कांग्रेस की कमीज पर पहले से अनेक दाग थे, एक ओर दाग लगने से कोई खास फर्क नहीं पड़ा, मगर भाजपा की सफेद झग कमीज पर लगा दाग अलग से ही चमक रहा है। कोयला घोटाले में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की संलिप्ता के आरोपों के बहाने कांग्रेस सरकार को गिराने की कगार तक पहुंचाने को आतुर भाजपा की धार अब भोंटी हो गई है। वह इस वजह से भी कि जिस पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी को चोर की उपमा दी गई हो, वह पलट कर एक शब्द भी नहीं बोल पाई। ऐसे में यकायक वह विडंबना भी ख्याल में आ जाती है कि जिस भाजपा की पीठ पर सवार हो टीम अन्ना ने अपना कद ऊंचा किया, मौका पड़ते ही उसे भी धक्का दे दिया। केजरीवाल का यह वार कितना गहरा हुआ है, यह तो आगामी चुनाव में ही पता लगेगा, मगर इससे यह तो साबित हो ही केजरीवाल बड़े ही शातिर खिलाड़ी हैं।
अन्ना की गैर मौजूदगी और प्रमुख सहयोगी किरण बेदी की मतभिन्नता के बीच टीम केजरीवाल के नाम से शुरू हुई इस क्रांति की समीक्षा में यह साफ तौर पर उभर कर आया है कि इससे कांग्रेस को फौरी मगर बड़ी राहत मिली है। जिस तरह से तकरीबन दस घंटे तक दिल्ली में प्रदर्शनकारियों के प्रति नरम रुख के कारण नौटंकी का लाइव शो हो रहा था, उससे पूरे देश में  यह संदेश चला गया है कि कांग्रेस तो भ्रष्ट है ही, कांग्रेस को लगातार बदनाम करने वाली भाजपा के हाथ भी भ्रष्टाचार से रंगे हुए हैं। कांग्रेस यही तो चाहती थी। कदाचित इसी वजह से प्रदर्शनकारियों को मामूली रोक टोक के बीच अति सुरक्षा वाले प्रधानमंत्री आवास सहित सोनिया गांधी व नितिन गडकरी के निवास पर प्रदर्शन करने की खुली छूट दे दी गई। बाद में दिखावे के लिए  हल्का लाठीचार्ज करके पुलिस को भी अपनी इज्जत बचाने का मौका दे दिया। सरकार की कुटिल चतुराई उजागर करने के लिए क्या यह प्रमाण काफी नहीं है कि जिन आंदोलकारी नेताओं अरविंद केजरीवाल, कुमार विश्वास, मनीष, गोपाल राज व संजय सिंह को सुबह ही पकड़ लिया गया था, उन्हें मामूली जद्दोजहद के बाद छोड़ दिया गया ताकि वे जंतर मंतर पर अपने समर्थकों के साथ गुरिल्ला युद्ध के लिए तैयार कर सकें। इतना ही नहीं कूच करने पर आंदोलनकारियों को रोकने का प्रयास तक नहीं किया गया। जबकि सच्चाई ये है कि मीडिया बार-बार जिस पुलिस को लाचार करार दे रही थी, वह चाहती तो उनको छठी का दूध याद दिला देती। साफ है कि यह सब सोची समझी रणनीति के तहत हो रहा था। भले ही इसे सरकार व केजरीवाल की मिलीभगत का संज्ञा नहीं दी जा सके, मगर जो नूरा कुश्ती हुई, उससे दोनों ही अपने-अपने मकसद में कामयाब हो गए। कांग्रेस इस बात से संतुष्ट है कि उसके साथ भाजपा भी बदनाम हो गई व अब उसके शब्द बाणों में वह तरारा नहीं रहेगा, वहीं केजरीवाल इस बात से कि पिछले नाकाम अनशन से हुई किरकिरी से हताश कार्यकर्ताओं में नए जोश का संचार हो गया। साथ ही आगामी आम चुनाव में राजनीतिक विकल्प देने का प्लेटफार्म तैयार हो गया।
हालांकि भाजपा के कोयला घोटाले में संलिप्त होने के सबूत कांग्रेस के पास भी हैं, मगर उसने संसद में बहस का न्यौता देकर उन्हें दबा रखा था। वह जानती थी कि अगर वह उस सच को उजागर करेगी तो उसका उतना असर नहीं होगा, क्योंकि खुद उसके हाथ भी कालिख से पुते हुए हैं। वैसे भी युद्ध में पहले जिसने वार किया हो, उसी की जीत नजर आती है, जवाब में किया गया वार सुरक्षा की श्रेणी में ही गिना जाता है। यही सच टीम केजरीवाल उजागर करेगी तो लोग ज्यादा विश्वास करेंगे। ठीक वैसा ही हुआ।
ऐसा नहीं है कि केजरीवाल ने इसमें पाया ही पाया है, कुछ खोया भी है। और यही वजह है कि चौपालों व पान की थडिय़ों पर उनकी समालोचना भी हो रही है। लोग पूछ रहे हैं कि संसद का अधिवेशन चलने के दौरान रविवार का ही दिन प्रदर्शन के लिए क्यों चुना? क्या इसके लिए सरकार से कोई टाईअप किया गया था? तय रणनीति से हट कर सुबह छह बजे ही धरना देने क्यों पहुंच गए? इस रणनीति का मीडिया को पता कैसे लगा? कहीं प्रदर्शन का असल मकसद प्रचार मात्र पाना था? पुलिस के नरम रुख के लिए हालांकि वही जिम्मेदार है, मगर इससे मिलीभगत की बू तो आती ही है, वरना कार्यकर्ता सारे सुरक्षा घेरे तोडऩे की हिमाकत कैसे कर गए?
लब्बोलुआब, इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के सहारे हुए इस नाटक ने लोगों को नई बहस में उलझा दिया है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

रविवार, अगस्त 26, 2012

टीम केजरीवाल को मिला अन्ना का आशीर्वाद


कोयला घोटाले को लेकर रविवार को देश की राजधानी दिल्ली में हुए आईएसी के प्रदर्शन को भले ही टीम केजरीवाल का आंदोलन माना जा रहा हो, जो कि वाकई उनके ही नेतृत्व में हुआ और अन्ना हजारे कहीं नजर नहीं आए, मगर उसे उनका आशीर्वाद जरूर हासिल हुआ। अन्ना हजारे ने बाकायदा अपने ब्लॉग अन्ना हजारे सेज पर सभी क्रांतिकारियों को बधाई दी है।
असल में कोयला घोटाले के मामले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के निवासों पर प्रदर्शन की घोषणा से लेकर रविवार को हुए प्रदर्शन तक अन्ना हजारे की चर्चा कहीं पर भी नहीं थी। ऐसा माना जा रहा था कि टीम अन्ना भंग करने के बाद अन्ना हजारे मायूस हो कर एकांतवास में चले गए हैं। प्रदर्शन में अन्ना हजारे की भूमिका नगण्य होने का प्रमाण यही है कि प्रदर्शनकारियों के सिर पर मैं अन्ना हूं वाली टोपियां नदारद थीं। कुछ कार्यकर्ताओं ने तो मैं केजरीवाल हूं वाली टोपी लगा रखी थी। दिन भर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया भी इसका बार-बार उल्लेख कर रहा था कि अन्ना हजारे का कहीं अता-पता नहीं है। मगर शाम होते-होते अन्ना हजारे से रहा नहीं गया। प्रदर्शन के कामयाब होने पर उन्होंने ब्लॉग लिख ही डाला।
आइये, देखते हैं कि उन्होंने अपने ब्लॉग पर क्या लिखा है:-
सभी क्रांतिकारियों को बधाई
दिनांक 26 अगस्त 2012 दिल्ली में जो अहिंसक मार्ग से आंदोलन हुआ उस आंदोलन में जो जो आंदोलनकारी शामिल हुए उन सबको मैं बधई देता हूं, उनका अभिनंदन करता हूं। पुलिस वाले मार पिटाई करते रहे लेकिन किसी भी आंदोलनकारी ने हाथ नहीं उठाया, पानी के बौछार से मारा, अश्रधुर छोड़ा लेकिन सब सहन करते आंदोलन किया यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण लगी।
आंदोलनकारी अपने लिए, अपने परिवार के लिए अपने संस्था के लिए क्या मांग रहे है? आंदोलनकारी इतना ही मांग रहे थे कि कोयला घोटाला के बारे में संसद में छ: दिन से चर्चा नहीं हो रही, यह जनता का पैसा आप बर्बाद क्यों कर रहे हैं। कोयले घोटाले में कांग्रेस क्या और बीजेपी क्या दोनों पक्ष और पार्टी के लोक जिम्मेदार हैं। जनता की दिशाभूल करने के लिए संसद में तू-तू मैं-मैं हो रही है। आंदोलनकारियों का कहना है कि देश के आजादी के लिए लाखों शहीदों ने अपनी कुर्बानी दी है, हसते हसते फांसी पर चले गए उनका देश और देश की जनात की खुशहाली के बारे में बहुत बड़ा सपना था। आज राजनीति के कई लोगों ने सत्ता से पैसा और पैसे से सत्ता इसी सोच में उनका सपना मिट्टी में मिला दिया। वह सपना पूरा करने का इन आंदोलनकारियों की कोशिश है। हम पुलिस के डंडे खायेंगे इतना ही नहीं गोली भी खायेंगे लेकिन उन शहीदों का सपना पूरा करने की कोशिश करेंगे। मैं जब टीवी देख रहा था कि आंदोलनकारी पुलिस के सामने खड़ा है और पुलिस उसको एक जानवर की तरह डंडे से पीट रही थी लेकिन किसी भी आंदोलनकारी ने अपना हाथ नहीं उठाया। उस  दृश्य  को देखकर मुझे उन नव जवानों पर बड़ा गर्व महसूस हो रहा था और अनुभव कर रहा था कि देश में परिवर्तन का समय आ गया है। ऐसे परिवर्तन लाने के लिए यही रास्ता है, जो यह युवक कर रहे थे।
आजादी की दूसरी लड़ाई में सफल होना है तो मार खाना पड़ेगा, लाठी खानी पड़ेगी। समय आ गया तो गोली भी खानी पड़ेगी। अब संपूर्ण परिवर्तन के लिए आजादी की दूसरी लड़ाई की शुरूआत हो गई  है। उसका प्रदर्शन आंदोलनकारी युवकों ने किया है। इस प्रदर्शन से देश के युवकों को एक नई दिशा मिलेगी, नई प्रेरणा मिलेगी और दिल्ली की अहिंसक मार्ग से शुरू हुई आजादी की दूसरी लड़ाई की चिंगारी अब देश में फैल जाएगी और संपूर्ण परिवर्तन के तरफ यह  आंदोलन जाएगा। मैं फिर से युवकों को आह्वान करता हूं कि राष्ट्रीय संपत्ती हमारी संपत्ती है, उसका कोई भी नुकसान ना हो रास्ते स गुजरने वाले सभी भाई बहन हमारे भाई बहन है, उनको तकलीफ ना हो, तकलीफ हमने सहन करनी है, आत्मकलेश हमने सहन करना है और उनकी वेदना ये जनता को होनी है। जैसे आज पुलिस वाले आंदोलनकारियों के पिट रहे थे लेकिन वेदना देश की जनता को हो रही थी।
आज के दिल्ली के आंदोलन का आदर्श देश के युवाओं को लेना है और आगे कोई भी हिंसा ना करते हुए अहिंसा के मार्ग से आंदोलन करना है। मुझे विश्वास हो रहा है कि आजादी की दूसरी लड़ाई में हम कामयाब हो जाएंगे। सभी आंदोलनकारियों का फिर से धन्यवाद।
भवदीय,
कि. बा. उपनाम अण्णा हजारे

इस लिंक पर क्लिक करके आप ब्लॉग भी देख सकते हैं
अन्ना हजारे सेज

-तेजवानी गिरधर

बुधवार, अगस्त 22, 2012

पाक से आने वाले हिंदुओं का स्वागत, मगर जरा संभल कर

इन दिनों पाकिस्तान में हिंदुओं पर अत्याचार और वहां से भाग कर भारत आने का मुद्दा गरमाया हुआ है। भारत आए हिंदुओं की दास्तां सुनें तो वाकई दिल दहल जाता है कि पाकिस्तान में किन हालात में हिंदू जी रहे हैं। ऐसे में दिल ओ दिमाग यही कहता है कि भारत में शरण को आने वाले हिंदुओं का स्वागत किया ही जाना चाहिए। मगर साथ ही धरातल का सच यह भी इशारा करता है कि सहानुभूति की आड़ में कहीं हमारे साथ धोखा तो नहीं हो जाएगा? कहीं यह भारत में घुसपैठ का नया तरीका तो नहीं, जो बाद में देश की सुरक्षा में नई सेंध बन जाए?
वस्तुत: पाकिस्तान के अल्पसंख्यक हिंदुओं की समस्या ने पिछले सितंबर से जोर पकड़ा है। तीस दिन का धार्मिक वीजा लेकर यहां आने वाले हिंदू भारत आकर बता रहे हैं कि पाकिस्तान में हिंदुओं के साथ अमानवीय अत्याचारों की हद पार की जा रही है। कहीं सरेआम लूटा जा रहा है तो कहीं किसी हिंदू लड़कियों के साथ बलात्संग, कहीं जबरन धर्म परिवर्तन तो कहीं जबरन निकाह जैसे आम बात हो गई है। जाहिर है उनकी बातें सुन कर कठोर से कठोर दिल वाले को भी दया आ जाए। ऐसे में इन हिंदुओं के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार किये जाने की पैरवी की जाती है।
लेकिन सिक्के का दूसरे पर नजर डालें तो वह और भी भयावह लगता है। इस प्रकार झुंड के झुंड भारत आ रहे पाकिस्तानी हिंदुओं पर शक करने वाले कहते हैं कि पाकिस्तान और भारत के कटु रिश्तों को देखते हुए भारत को ऐसे मामले में सतर्क रहना होगा। पाकिस्तानी हिंदुओं की स्थिति बेशक मार्मिक है, लेकिन यहां आ रहे लोग हिंदू ही हैं, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। कई जानकार और रक्षा विशेषज्ञ इस आवाजाही को घुसपैठ का एक तरीका मान रहे हैं। उनके अनुसार पीडि़तों की आड़ में पाकिस्तान इन हिंदुओं के रूप में अपने आतंकी भी भारत में भेज रहा है, जो देश की सुरक्षा में एक बड़ा सेंध साबित होने वाले हैं।
मौजूदा समस्या के सिलसिले में इस पर चर्चा करना प्रासंगिक ही होगा कि भारत में घुसपैठ की समस्या बहुत पुरानी है। आज तक उसका पक्का आंकड़ा नहीं मिल पाया है। सरकार और विपक्ष इस पर अपनी चिंता जाहिर करते रहे हैं। बावजूद इसके पाकिस्तानियों के अतिरिक्त बांग्लादेशियों की घुसपैठ आज तक नहीं रोकी जा सकी है। भाजपा ने तो हाल ही असम संकट उभरने पर घुसपैठ के खिलाफ जागृति अभियान भी छेड़ दिया है। अवैध रूप से घुसपैठ से इतर वैध तरीके से हो रही घुसपैठ भी कम चिंताजनक नहीं है।
सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि पिछले तीन साल में डेढ़ लाख से ज्यादा पाकिस्तानी नागरिक वैध वीजा पर भारत पहुंचे। गृह राज्यमंत्री एम रामचंद्रन ने गत दिनों लोकसभा को बताया कि वर्ष 2009 में 53 हजार 137, 2010 में 51 हजार 739 और 2011 में 48 हजार 640 पाकिस्तानी भारत आए थे। पाकिस्तानी नागरिकों की वीजा अवधि बढ़ाने के आंकड़ों का केंद्रीय लेखा-जोखा नहीं रखा गया था। नतीजतन इसका पक्का आंकड़ा नहीं है कि कितने वापस लौटे ही नहीं। सूत्रों के अनुसार हिंदूवादी संगठन आरएसएस के गढ़ नागपुर में ही तकरीबन दो हजार से अधिक पाकिस्तानी नागरिक अपने विजिटिंग वीजा की समयावधि पूरी होने के बावजूद नागपुर में रह रहे हैं। तकरीबन 9 हजार 705 पाकिस्तानी नागरिकों को भारत में नागपुर आने के लिए विजिटिंग वीजा प्राप्त हुआ था। यह वीजा 30, 45, 60, और 90 दिनों का था। करीब 2 हजार 46 पाकिस्तानी नागरिक यहां लंबी अवधि का वीजा लेकर आए थे और इनमें से 533 ने भारतीय नागरिकता प्राप्त कर ली थी। मगर इनमें से करीब 2013 पाकिस्तानी नागरिक वीजा अवधि समाप्ति के बावजूद अपने देश लौटे ही नहीं हैं। पुलिस ने स्वीकार किया कि 1994 से यहां रह रहे पाकिस्तानी नागरिकों के नाम और पते की जानकारी नहीं है।
सूत्रों के अनुसार राजस्थान में पिछले पांच साल में करीब 23 हजार पाक नागरिक आए थे। इनमें से 4,624 लोग वीजा अवधि खत्म होने के बाद भी नहीं लौटे। 4,273 लोग पुलिस की जानकारी में आ गए। इन्होंने वीजा अवधि बढ़ाने के लिए आवेदन कर रखा है, जबकि चार अन्य की मौत हो गई है। चौंकाने वाला तथ्य ये है कि इनमें से 347 पाक नागरिकों का अता-पता नहीं है। खुफिया एजेंसियों को आशंका है कि इनमें से कुछ यहां आईएसआई के लिए बतौर रेजीडेंट एजेंट काम कर रहे हैं। एडीजी इंटेलीजेंस दलपत सिंह दिनकर का कहना है कि पिछले चार साल में चार हजार से भी अधिक लोगों ने पाक लौटने से मना किया है। उनमें से अधिकांश ने शपथ-पत्र देकर पाक में प्रताडि़त किए जाने आरोप लगाए हैं।
पिछले दिनों जब पाक कमिश्नर सलमान बशीर अजमेर में पाक राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी की ओर से दरगाह शरीफ में 5 करोड़ 47 लाख 48 हजार 905 रुपये का नजराना देने आए तो उनसे पाकिस्तानियों के यहां आ कर गायब होने बाबत मीडिया ने सवाल किया, इस पर उनके पास कोई वाजिब जवाब नहीं था और यह कह कर टाल दिया कि पाकिस्तान आने वाले भारतीय भी तो वहां गायब हो रहे हैं। उनकी संख्या यहां गायब होने वालों से भी ज्यादा है। ऐसे में यह कहना ठीक नहीं है कि उन्हें कोई भेज रहा है। उनके जवाब से स्पष्ट है कि पाकिस्तान भलीभांति जानता है कि हकीकत क्या है, मगर बहानेबाजी कर रहा है। इसी बहानेबाजी के पीछे पाकिस्तान की कुत्सित चाल का संदेह होता है।
लब्बोलुआब, बेशक हमें शरणार्थी बन कर आ रहे हिंदुओं के प्रति पूरी संवेदना बरती जानी चाहिए, मगर देश की अस्मिता के साथ खिलवाड़ की कीमत पर नहीं।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, अगस्त 19, 2012

अब जायज लग रहा है सोशल मीडिया पर लगाम कसना

उत्तर पूर्व के लोगों को धमकाने पर चेती सरकार, फेसबुक यूजर्स में भी आई जागृति
आज जब सोशल मीडिया के दुरुपयोग की वजह से उत्तर पूर्व के लोगों का देश के विभिन्न प्रांतों से बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है और सरकार की ओर से सुरक्षा की बार-बार घोषणा का भी असर नहीं हो रहा तो लग रहा है कि वाकई सोशल मीडिया पर नियंत्रण की मांग जायज है। इससे पूर्व केन्द्रीय दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने जैसे ही यह कहा थ कि उनका मंत्रालय इंटरनेट में लोगों की छवि खराब करने वाली सामग्री पर रोक लगाने की व्यवस्था विकसित कर रहा है और सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स से आपत्तिजनक सामग्री को हटाने के लिए एक नियामक व्यवस्था बना रहा है तो बवाल हो गया था। अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकार बुद्धिजीवी इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश के रूप में परिभाषित करने लगे, वहीं मौके का फायदा उठा कर विपक्ष ने इसे आपातकाल का आगाज बताना शुरू कर दिया था। अंकुश लगाए जाने का संकेत देने वाले केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल को सोशल मीडिया पर जम कर गालियां बकी जा रही थीं कि वे नेहरू-गांधी परिवार के तलुए चाट रहे हैं। सिब्बल के बयान को तुरंत इसी अर्थ में लिया गया कि वे सोनिया व मनमोहन सिंह के बारे में आपत्तिजनक सामग्री हटाने के मकसद से ऐसा कर रहे हैं। एक न्यूज चैनल ने तो बाकायदा न्यूज फ्लैश में इसे ही हाइलाइट करना शुरू कर दिया, हालांकि दो मिनट बाद ही उसने संशोधन किया कि सिब्बल ने दोनों का नाम लेकर आपत्तिजनक सामग्री हटाने की बात नहीं कही है। हालांकि सच यही था कि नेहरू-गांधी परिवार पर अन्ना हजारे व बाबा रामदेव के समर्थकों सहित हिंदूवादी संगठन अभद्र और अश्लील टिप्पणियां कर रहे थे और अब भी कर रहे हैं, इसी वजह से अंकुश लगाए जाने का ख्याल आया था। यह बात दीगर है कि बीमार मानसिकता के लोग अन्ना व बाबा को भी नहीं छोड़ रहे। सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने वाली सामग्री के साथ अश्लील फोटो भी खूब पसरी हुई है।
असल में ऐसा प्रतीत होता है कि सोशल मीडिया के मामले में हम अभी वयस्क हुए नहीं हैं। हालांकि इसका सदुपयोग करने वाले भी कम नहीं हैं, मगर अधिसंख्य यूजर्स इसका दुरुपयोग कर रहे हैं। केवल राजनीतिक टिप्पणियां ही नहीं, बल्कि अश्लील सामग्री भी जम कर परोसी जा रही है। लोग बाबा रामदेव और अन्ना तक को नहीं छोड़ रहे। लोगों को लग रहा है कि जो बातें प्रिंट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर आचार संहिता की वजह से नहीं आ पा रही, सोशल मीडिया पर बड़ी आसानी से शेयर की जा सकती है। और शौक शौक में लोग इसके मजे ले रहे हैं। साथ ही असामाजिक तत्व अपने कुत्सित मकसद से उसका जम कर दुरुपयोग कर रहे हैं।
आपको याद होगा कि चंद माह पहले ही भीलवाड़ा में भी एक धर्म विशेष के बारे में घटिया टिप्पणी की वजह से सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न हो गया था। मगर चूंकि कोई बड़ी वारदात नहीं हुई, इस कारण न तो सरकार चेती न ही इंटरनेट कंपनियां। उलटे अभिव्यक्ति की आजादी की पैरवी करने वाले हावी हो रहे थे कि सरकार केवल नेहरू-गांधी परिवार को बचाने के लिए ही अंकुश की बातें कर रही है। आज जब इसी सोशल मीडिया का उत्तर पूर्व के लोगों को धमकाने के लिए किया जा रहा है और वे अखंड भारत में अपने राज्य की ओर पलायन करने को मजबूर हैं तो राजनीतिक दलों को भी लग रहा है कि इस पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता रामगोपाल यादव सहित अन्य ने तो बाकायदा संसद में मांग उठाई। सरकार ने भी इंटरनेट कंपनियों को नफरत फैलाने वाली सामग्री हटाने को कहा है। गृह मंत्रालय ने फेसबुक, ऑरकुट व ट्विटर जैसे सोशल साइट पर भी नजर रखने को कहा है। कुछ जागरूक फेसबुक यूजर्स भी दुरुपयोग नहीं करने की अपील कर रहे हैं।
आपको याद होगा कि पूर्व में जब सोशल मीडिया पर लगाम कसने की खबर आई तो उस पर देशभर के बुद्धिजीवियों में जम कर बहस छिड़ गई थी। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की दुहाई देते हुए जहां कई लोग इसे संविधान की मूल भावना के विपरीत और तानाशाही की संज्ञा दे रहे थे, वहीं कुछ लोग अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने चाहे जिस का चरित्र हनन करने और अश्लीलता की हदें पार किए जाने पर नियंत्रण पर जोर दे रहे थे।
वस्तुत: पिछले कुछ सालों में हमारे देश में इंटरनेट व सोशल नेटवर्किंग साइट्स का चलन बढ़ रहा है। आम तौर पर प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर जो सामग्री प्रतिबंधित है अथवा शिष्टाचार के नाते नहीं दिखाई जाती, वह इन साइट्स पर धड़ल्ले से उजागर हो रही है। किसी भी प्रकार का नियंत्रण न होने के कारण जायज-नाजायज आईडी के जरिए जिसके मन जो कुछ आता है, वह इन साइट्स पर जारी कर अपनी कुंठा शांत कर रहा है। अश्लील चित्र और वीडियो तो चलन में हैं ही, धार्मिक उन्माद फैलाने वाली सामग्री भी पसरती जा रही है।
जहां तक अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल है, मोटे तौर पर यह सही है कि ऐसे नियंत्रण से लोकतंत्र प्रभावित होगा। इसकी आड़ में सरकार अपने खिलाफ चला जा रहे अभियान को कुचलने की कोशिश कर सकती है, जो कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए घातक होगा। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी के मायने यह है कि फेसबुक, ट्विटर, गूगल, याहू और यू-ट्यूब जैसी वेबसाइट्स पर लोगों की धार्मिक भावनाओं, विचारों और व्यक्तिगत भावना से खेलने तथा अश्लील तस्वीरें पोस्ट करने की छूट दे दी जाए? व्यक्ति विशेष के प्रति अमर्यादित टिप्पणियां और अश्लील फोटो जारी करने दिए जाएं? किसी के खिलाफ भड़ास निकालने की खुली आजादी दे दी जाए? सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इन दिनों जो कुछ हो रहा है, क्या उसे अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर स्वीकार कर लिया जाये?
राजनीतिक दृष्टिकोण से हट कर भी बात करें तो यह सवाल तो उठता ही है कि क्या हमारा सामाजिक परिवेश और संस्कृति ऐसी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर आ रही अपसंस्कृति को स्वीकार करने को राजी है? माना कि इंटरनेट के जरिए सोशल नेटवर्किंग के फैलते जाल में दुनिया सिमटती जा रही है और इसके अनेक फायदे भी हैं, मगर यह भी कम सच नहीं है कि इसका नशा बच्चे, बूढ़े और खासकर युवाओं के ऊपर इस कदर चढ़ चुका है कि वह मर्यादाओं की सीमाएं लांघने लगा है। अश्लीलता व अपराध का बढ़ता मायाजाल अपसंस्कृति को खुलेआम बढ़ावा दे रहा है। जवान तो क्या, बूढ़े भी पोर्न मसाले के दीवाने होने लगे हैं। इतना ही नहीं फर्जी आर्थिक आकर्षण के जरिए धोखाधड़ी का गोरखधंधा भी खूब फल-फूल रहा है। साइबर क्राइम होने की खबरें हम आए दिन देख-सुन रहे हैं। जिन देशों के लोग इंटरनेट का उपयोग अरसे से कर रहे हैं, वे तो अलबत्ता सावधान हैं, मगर हम भारतीय मानसिक रूप से इतने सशक्त नहीं हैं। ऐसे में हमें सतर्क रहना होगा। सोशल नेटवर्किंग की  सकारात्मकता के बीच ज्यादा प्रतिशत में बढ़ रही नकारात्मकता से कैसे निपटा जाए, इस पर गौर करना होगा।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, अगस्त 17, 2012

जिस गंदगी को गाली दी, उसी में जा गिरे रामदेव


करीब डेढ़ साल पहले 25 फरवरी 2011 को अनेक न्यूज पोर्टल पर अपने एक आलेख में मैने आशंका जाहिर की थी कि कहीं खुद की चाल भी न भूल जाएं। आखिर वही हुआ, जिस गंदगी को वे पानी पी पी कर गालियां दे रहे थे, आखिर उसी गंदगी में जा कर गिरे।
बेशक हमारे लोकतांत्रिक देश में किसी भी विषय पर किसी को भी विचार रखने की आजादी है। इस लिहाज से बाबा रामदेव को भी पूरा अधिकार है। विशेष रूप से देश हित में काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलना और उसके प्रति जनता में जागृति भी स्वागत योग्य है। इसी वजह से कुछ लोग तो शुरुआत में ही बाबा में जयप्रकाश नारायण तक के दर्शन करने लगे थे। अब तो करेंगे ही, क्योंकि बाबा अब उसी राह पर चल पड़े हैं। जयप्रकाश नारायण ने भी व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर कांग्रेस सरकार के खिलाफ मुहिम छेड़ी। मुहिम इस अर्थ में कामयाब भी रही कि कांग्रेस सरकार उखड़ गई, मगर व्यवस्था जस की तस ही रही। उस मुहिम की परिणति में जो जनता पार्टी बनी, उसका हश्र क्या हुआ, किसी से छिपा हुआ नहीं है। बाबा पहले तो बार बार यही कहते रहे कि उनकी किसी दल विशेष से कोई दुश्मनी नहीं है, मगर आखिर कांग्रेस मात्र के खिलाफ बिगुल बजाने के साथ ही उनका एजेंडा साफ हो गया है। बाबा का अभियान देश प्रेम से निकल कर कांग्रेस विरोध तक सिकुड़ कर रह गया है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि बाबा का अभियान एनडीए की रामदेव लीला बन कर रह गया है। पिछले साल रामलीला मैदान में संपन्न हुई रणछोड़ लीला के बाद साख की जो शेष पूंजी बची थी, वो 13 अगस्त को रामलीला मैदान में कांग्रेस विरोध के नाम पर एनडीए के हाथों लुट गयी।
ऐसा नहीं कि हमारे देश में आध्यात्मिक व धर्म गुरू राजतंत्र के जमाने से राजनीति में शुचिता पर नहीं बोलते थे। वे तो राजाओं को दिशा देने तक का पूरा दायित्व निभाते रहे हैं। हालांकि बाबा रामदेव कोई धर्म गुरू नहीं, मात्र योग शिक्षक हैं, मगर जीवन चर्या और वेशभूषा की वजह से अनेक लोग उनमें भी धर्म गुरू के दर्शन करते रहे हैं। लाखों लोगों की उनमें व्यक्तिगत निष्ठा है। उनके शिष्य मानें या न मानें, मगर यह कड़वा सच है कि राजनीतिक क्षेत्र में अतिक्रमण करते हुए जिस प्रकार आग उगलते हैं, जिस प्रकार अकेली कांगे्रस के खिलाफ निम्न स्तरीय भाषा का उपयोग करते हैं, उससे उनकी छवि तो प्रभावित हुई ही है। उनकी मुहिम कितनी कामयाब होगी, ये तो वक्त ही बताएगा, मगर मगर योग गुरू के रूप में उन्होंने जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति व प्रतिष्ठा अर्जित की है, उस पर आई आंच को वे बचा नहीं पाएंगे। असल में गुरु तुल्य कोई शख्स राजनीति का मार्गदर्शन करे तब तक तो उचित ही प्रतीत होता है, किंतु अगर वह स्वयं ही राजनीति में कूद पड़ता है तो फिर कितनी भी कोशिश करे, काजल की कोठरी में काला दाग लगना अवश्यंभावी है।
यह सर्वविदित ही है कि जब वे केवल योग की बात करते हैं तो उसमें कोई विवाद नहीं करता, लेकिन भगवा वस्त्रों के प्रति आम आदमी की श्रद्धा का नाजायज फायदा उठाते हुए राजनीतिक टीका-टिप्पणी की तो उन्हें भी दिग्विजय सिंह जैसे शातिर राजनीतिज्ञों की घटिया टिप्पणियों का सामना करना पड़ा। तब बाबा के शिष्यों को बहुत बुरा लगता था। भला ऐसा कैसे हो सकता था कि केवल वे ही हमला करते रहते। हालांकि शुरू में वे यह रट लगाए रहते थे कि उनकी कांग्रेस से कोई दुश्मनी नहीं है, मगर काले धन के बारे में बोलते हुए गाहे-बगाहे नेहरू-गांधी परिवार को ही निशाना बनाते रहे। शनै: शनै: उनकी भाषा भी कटु होती गई, जिसमें दंभ साफ नजर आता था।
रहा सवाल जिस कालेधन की वे बात करते हैं, क्या वे उस काले धन की वजह से ही आज वे सरकार पर हमला बोलने की हैसियत में नहीं आ गए हैं। हालांकि यह सही है कि अकूत संपत्तियां बाबा रामदेव के नाम पर अथवा निजी नहीं हैं, मगर चंद वर्षों में ही उनकी सालाना आमदनी 400 करोड़ रुपए तक पहुंचने का तथ्य चौंकाने वाला ही है। कुछ टीवी चैनलों में भी बाबा की भागीदारी है। बाबा के पास स्कॉटलैंड में दो मिलियन पौंड की कीमत का एक टापू भी बताया जाता है, हालांकि उनका कहना है वह किसी दानदाता दंपत्ति ने उन्हें भेंट किया है। भले ही बाबा ने खुद के नाम पर एक भी पैसा नहीं किया हो, मगर इतनी अपार धन संपदा ईमानदारों की आमदनी से तो आई हुई नहीं मानी जा सकती। निश्चित रूप से इसमें काले धन का योगदान है। इस लिहाज से पूंजीवाद का विरोध करने वाले बाबा खुद भी परोक्ष रूप से पूंजीपति हो गए हैं। और इसी पूंजी के दम पर वे अब खम ठोक कर कह रहे हैं कि कांगे्रस को उखाड़ कर नई सरकार बनाएंगे।
ऐसा प्रतीत होता है कि योग और स्वास्थ्य की प्रभावी शिक्षा के कारण करोड़ों लोगों के उनके अनुयायी बनने से बाबा भ्रम में पड़ गए हैं। उन्हें ऐसा लगने लगा है कि आगामी चुनाव में जब वे खुल कर भाजपा सहित कुछ पार्टियों के प्रत्याशियों को समर्थन देंगे तो वे सभी अनुयायी उनके कहे अनुसार मतदान करेंगे। योग के मामले में भले ही लोग राजनीतिक विचारधारा का परित्याग कर सहज भाव से उनके इर्द-गिर्द जमा हैं, लेकिन जैसे ही वे सक्रिय राजनीति का चोला धारण करेंगे, लोगों का रवैया भी बदल जाएगा।
जहां तक देश के मौजूदा राजनीतिक हालात का सवाल है, उसमें शुचिता, ईमानदारी व पारदर्शिता की बातें लगती तो रुचिकर हैं, मगर उससे कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा, इस बात की संभावना कम ही है। ऐसा नहीं कि वे ऐसा प्रयास करने वाले पहले संत है, उनसे पहले करपात्रीजी महाराज और जयगुरुदेव ने भी अलख जगाने की पूरी कोशिश की, मगर उनका क्या हश्र हुआ, यह किसी ने छिपा हुआ नहीं है।  इसी प्रकार राजनीति में आने से पहले स्वामी चिन्मयानंद, रामविलास वेदांती, योगी आदित्यनाथ, साध्वी ऋतंभरा और सतपाल महाराज के प्रति कितनी आस्था थी, मगर अब उनमें लोगों की कितनी श्रद्धा है, यह भी सब जानते हैं। कहीं ऐसा न हो कि बाबा रामदेव भी न तो पूरे राजनीतिज्ञ हो पाएं और न ही योग गुरू जैसे ऊंचे आसन की गरिमा कायम रख पाएं।
कुल मिला कर यह बेहद अफसोस की बात है कि जनभावनाओं के अनुरूप पिछले एक डेढ़ साल में राजनीतिक दलों के खिलाफ दो बड़े आंदोलन पैदा हुए लेकिन अन्ना का आंदोलन राजनीतिक दल बनाने की घोषणा के साथा खत्म हो गया तो बाबा रामदेव का गैर कांग्रेसी राजनीतिक दलों का समर्थन लेकर व उनका समर्थन करने की घोषणा के साथ समाप्त हो गया।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, अगस्त 14, 2012

वसुंधरा के नेतृत्व में चुनाव लडऩे पर असमंजस

राजस्थान में आगामी विधानसभा चुनाव पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा के नेतृत्व में घोषित रूप से लड़े जाने पर अभी असमंजस बना हुआ है। भाजपा का संघनिष्ठ धड़ा हालांकि भाजपा की सरकार बनने पर श्रीमती वसुंधरा को ही मुख्यमंत्री बनाने पर सहमत है, मगर उन्हें पहले से मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट न करने पर जोर डाल रहा है। इस संबंध में उसका तर्क ये है कि जिस प्रकार गुजरात में मुख्यमंत्री नरेद्र मोदी के कहीं न कहीं पार्टी लाइन से ऊपर होने के कारण वहां हालात दिन ब दिन खराब होते जा रहे हैं, ठीक उसी प्रकार की स्थिति राजस्थान में भी होती जा रही है। ऐसे में बेहतर ये होगा कि उन्हें पहले से मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित न किया जाए, बाद में भले ही भाजपा को बहुमत मिलने पर उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया जाए।
इसी के साथ एक महत्वपूर्ण जानकारी ये भी है कि संघ का धड़ा वसुंधरा को फ्रीहैंड दिए जाने के पक्ष में भी नहीं है। उसका कहना है कि ऐसा करने पर वे अपने समानांतर धड़े को निपटाने की कोशिश कर सकती हैं, जैसा कि वे पहले भी कर चुकी हैं। कई पुराने नेता हाशिये पर धकेल दिए गए। और यदि ऐसा हुआ तो चुनाव में पार्टी को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। असल में उनका इशारा इस संभावना की ओर है, जिसके तहत यह माना जा रहा है कि चुनाव से पहले वसुंधरा राजे को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष का जिम्मा सौंपा जा सकता है। संघ का यह धड़ा मौजूदा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी को हटाए जाने के पक्ष में भी नहीं है। चतुर्वेदी को हटाए जाने को वह अपनी हार के रूप में देख रहा है।
वस्तुत: श्रीमती राजे को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिए दबाव बनाने वालों का कहना है कि अगर पार्टी को चुनाव में जीत हासिल करनी है तो वसुंधरा को टिकट वितरण अपने हिसाब से करने की छूट देनी होगी। इसके पीछे उनका तर्क ये है कि यदि प्रदेश अध्यक्ष कोई और होता है तो वह टिकट वितरण के समय रोड़ा अटका सकता है, जिसकी वजह से गलत प्रत्याशियों को टिकट मिल जाने की आशंका रहेगी। अपनी इस बात पर जोर डालने के लिए वे पिछले चुनाव का जिक्र करते हैं कि तब प्रदेश अध्यक्ष ओम माथुर के कुछ टिकटों के लिए अड़ जाने के कारण ऐसे प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारने पड़े, जो कि हार गए और भाजपा जीती हुई बाजी हार गई। हालांकि वे इस बात पर सहमत हैं कि संघ लॉबी को भी पूरी तवज्जो दी जानी चाहिए और उनके सुझाये हुए प्रत्याशियों को भी टिकट दिए जाएं, मगर कमान केवल वसुंधरा के हाथ में दी जाए। वसुंधरा खेमा इस बात पर भी नजर रखे हुए है कि कहीं संघ लॉबी कुछ ज्यादा हावी न हो जाए। अगर ऐसा होता है तो वे पहले की ही तरह फिर से इस्तीफा हस्ताक्षर अभियान जैसी किसी मुहिम की रणनीति अपना सकते हैं।
समझा जाता है कि फिलहाल पार्टी हाई कमान इस बात को लेकर असमंजस में है कि वसुंधरा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाए अथवा नहीं। इस बात की संभावना भी तलाशी जा रही है कि वसुंधरा विरोधी लॉबी को संतुष्ट करने के लिए किसी ऐसे नेता को प्रदेश अध्यक्ष का दायित्व सौंपा जाए, जो कि संघ और वसुंधरा दोनों को स्वीकार्य हो। इस सिलसिले में पूर्व गृह मंत्री गुलाब चंद कटारिया का नाम सामने आ रहा है। हालांकि पिछले दिनों कटारिया की प्रस्तावित मेवाड़ यात्रा को लेकर जो बवाल हुआ, उससे ऐसा प्रतीत हुआ कि वे वसुंधरा को चुनाती देने जा रहे हैं और दोनों के बीच संबंध काफी कटु हो चुके हैं, जबकि वस्तुस्थिति ये है कि वह विवाद केवल मेवाड़ अंचल में व्याप्त धड़ेबाजी की वजह से उत्पन्न हुआ। वहां वर्चस्व को लेकर कटारिया व किरण में जबरस्त खींचतान है और उसी वजह से इतना बड़ा नाटक हो गया। उस झगड़े की जड़ किरण माहेश्वरी थीं। अर्थात वसुंधरा व कटारिया के संबंध उतने कटु नहीं हैं, जितने कि समझे जा रहे हैं। कटारिया के अतिरिक्त पूर्व अध्यक्ष ओम माथुर का नाम भी सामने आ रहा है।
कुल मिला कर ताजा स्थिति ये है कि हाईकमान इस मुद्दे पर और विचार कर लेना चाहता है। विशेष रूप से दिसंबर में राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का कार्यकाल बढ़ाए जाने अथवा स्थितियां बदलने की संभावना के बीच राजस्थान के मसले को एक तरफ ही रखने के पक्ष में है। वैसे उसका एक मात्र मकसद राजस्थान पर फिर काबिज होना है। इसके लिए वह दोनों धड़ों के बीच तालमेल बनाए रखने पर ही पूरी ताकत लगाएगा। वजह ये है  कि एक ओर जहां वसुंधरा खेमा ताकतवर होने के कारण आक्रामक है, वहीं संघ के हार्डकोर नेताओं की मंशा ये है कि इस बार येन केन प्रकारेण वसुंधरा को राजस्थान से रुखसत कर दिया जाए। यह स्थिति पार्टी के लिए बेहद घातक साबित हो सकती है। लब्बोलुआब राजस्थान भाजपा का मसला बेहद नाजुक है और उसे बड़ी सावधानी से निपटाए जाने की कोशिश की जा रही है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

सोमवार, अगस्त 13, 2012

आधी अधूरी आजादी में जी रहे हैं हम

इस बार 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस की एक और वर्षगांठ मना रहे हैं। जाहिर सी बात है कि हर बार की तरह यह वर्षगांठ भी महज एक रस्म अदायगी मात्र ही है। हम सिर्फ यह कह-सुन कर आपस में खुश हो लेते हैं कि हम आजाद हैं, लेकिन सच में हम कितना आजाद हैं, यह तो हमारा दिल ही जानता है। यही वजह है कि आजादी का आंदोलन देख चुकी हमारी बुजुर्ग पीढ़ी बड़े सहज भाव में कहती सुनाई देती है कि इससे तो अंग्रेजों का राज अच्छा था।
वस्तुत: हमारी आजादी आधी अधूरी ही है। इसकी वजह ये है कि हम 15 अगस्त 1947 को अग्रेजों की दासता से तो मुक्त हो गए, मगर जैसी शासन व्यवस्था है, उसमें अब हम अपनों की ही दासता में जीने को विवश हैं। सबसे बड़ी समस्या है आतंकवाद और सांप्रदायिक विद्वेष की। इसके चलते देश के अनेक इलाकों में आजाद होने के बावजूद व्यक्ति को अगर अपने ही घर में संगीनों के साए में रहना पड़े, तो यह कैसी आजादी। लचर कानून व्यवस्था और लंबी न्यायिक प्रक्रिया के कारण संगठित अपराध इतना बढ़ गया है कि हम निर्भीक होकर सड़क पर चल नहीं सकते। हमारी बहन-बेटियों को अपने ही मोहल्लों में अपनी अस्मिता का भय बना रहता है। हम अपने ही देश में न्याय के लिये भटकते रहते हैं। शासन और प्रशासन तक अपनी बात पहुंचाने के लिये यदि हमें फिल्म शोले के वीरू की तरह टंकी या टॉवर पर चढना पड़े या आत्मदाह की कोशिश करनी पड़े तो उसे आजादी कैसे कहा जा सकता है।
ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या हमारे अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों ने इसी आजादी के लिये अपना बलिदान दिया था? क्या महात्मा गांधी ने ऐसी ही आजादी के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया था? क्या हम सिर्फ फिरंगियों की सत्ता से घृणा करते थे? फिरंगियों की सत्ता से हमने भले ही मुक्ति पा ली, लेकिन फिरंगी मानसिकता से आज हम 62 साल बाद भी मुक्त नहीं हो सके हैं। जो काम फिरंगी करते थे, उससे भी कहींं आगे हमारा राजनीतिक तंत्र कर रहा है।  'फूट डालो, राज करोÓ की जगह 'फूट डालो और वोट पाओÓ की नीति चल रही है। राजनीतिक हित साधने के लिए सत्ताधीशों को दंगा-फसाद कराने से भी गुरेज नहीं है। सत्ता को भ्रष्टाचार की ऐसी दीमक लग चुकी है की पूरा देश इससे कराह रहा है।
संविधान में जिस स्वतंत्रता और समानता की बात की जाती है, वह स्वतंत्रता और समानता दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। पहले हम फिंरगियों के जुल्म सहते थे, अब अपनों के जुल्म सह रहे हैं। पहले भी सत्ता के खिलाफ बोलने पर आवाज बंद करने की कोशिश की जाती थी, आज भी ऐसा चल रहा है। पहले आजादी के संघर्ष में जान जाती थी, आज तो पता नहीं, कब चली जाए। पहले अंग्रेज देश को लूट रहे थे, आज वही काम नेता कर रहे हैं। पहले भी सत्ता की ओर से तुगलकी फरमान जारी होते थे, आज भी ऐसे फरमान जारी हो रहे हैं। आजादी के लिए बलिदान देने वालों को देश भुला चुका है। आज ऐसे सत्ताधीशों की पूजा हो रही है, जिनका न कोई चरित्र है, न जिनमें नैतिकता है और न ईमानदारी। पहले भी लोग भूख से मरते थे, आज भी मर रहे हैं। सत्ता से चिपके रहने वाले लोग फिंरगी  शासन में भी ऐश कर रहे थे, आज भी सत्ता से चिपके रहने वाले ही सारे सुख भोग रहे हैं। आखिर यह कैसी आजादी है? क्या आम आदमी को भय और भूख से मुक्ति मिली है?  क्या आम आदमी को उसके जीवन की गांरंटी दी जा सकी है? क्या नारी की अस्मिता सुरक्षित है? क्या व्यक्ति अपनी बात निर्भीकता से रखने के लिए स्वतंत्र है? जाहिर है, इनके जवाब ना में ही होंगे। और जब ऐसा है, तब फिर इस आजादी के आम आदमी के लिए क्या मायने?
दरअसल, अब हम एक  ऐसी परंतत्रता में जी रहे हैं, जिसके खिलाफ अब दोबारा संघर्ष की जरूरत है। हमें अगर पूरी आजादी चाहिए, तो हमें एक और स्वाधीनता संग्राम के लिये तैयार हो जाना चाहिये। यह स्वाधीनता संग्राम जमाखोरों, कालाबाजारियों के खिलाफ होना चाहिए। यह संग्राम भ्रष्टाचारियों से लड़ा जाना चाहिए। यह संग्राम चोर, उचक्कों, लुटेरों और ठगों के खिलाफ छेड़ा जाना चाहिये। यह संग्राम देश को खोखला कर रहे सत्ता व स्वार्थलोलुप नेताओ के विरुद्ध लड़ा जाना चाहिए। यह संग्र्र्राम उन लोगों के खिलाफ किया जाना चाहिये, जो गरीबों, दलितों, मजलूमों और नारी का शोषण कर फल-फूल रहे हैं। अगर हम ऐसे लोगों को परास्त कर सके, अगर हम ऐसे लोगों से देश को मुक्त करा सके , तब हम कह सकेंगे कि हम वास्तविक रूप से आजाद हो चुके हैं। हालांकि हाल ही समाजसेवी अन्ना हजारे और योग गुरू बाबा रामदेव ने भ्रष्ट तंत्र व काले धन के खिलाफ पूरे देश को जगाने का काम किया है, मगर यह ताकतवर भ्रष्ट ताकतों के कारण यह आंदोलन सिरे चढ़ता नजर नहीं आ रहा। लोगों के मन में भ्रष्टाचार के खिलाफ रोष तो है, मगर व्यवस्था परिवर्तन के लिए कोई तैयार नहीं है।
हर भारतीय की इच्छा है कि आजादी केवल किताबों और शब्दों में ही नहीं, बल्कि धरातल पर भी दिखनी चाहिये। हमें गंाधी के सपनों का भारत चाहिये। हमें देश के महान क्रांतिकारियों के बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने देना है। विडंबना यह है कि हम आजादी के पर्व पर इन तथ्यों पर जरा भी चिंतन नहीं करते। हम सिर्फ इस दिन रस्म अदायगी करते हैं। सुबह झंडा फहरा कर और बड़े-बड़े भाषण देकर हम अपने कत्र्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं और दूसरे ही दिन पुराने ढर्ऱे वाली आपाधापी में व्यस्त हो जाते हैं।
-तेजवानी गिरधर