तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शनिवार, जुलाई 30, 2011

समलैंगिकता : कानूनी भले ही मिल गई, मगर सामाजिक मान्यता नहीं

यह सच है कि भारत में समलैंगिकता को एक अत्यंत निंदित, घृणित सामाजिक अपराध के रूप में देखा जाता रहा है, परंतु धरातल सच है कि  सामाजिक भय से भले ही छिप कर, लेकिन यह प्रवृत्ति बढ़ रही है। विशेष रूप से इस सिलसिले में आए कोर्ट के फैसले के दौरान पिछले दिनों जब इस पर बड़ी भारी बहस छिड़ी तो पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित लोग खुल कर सामने आ गए। यहां तक कि कई गैर-सरकारी संगठन और कथित उदार वादी इसके पक्ष में खड़े हो गए।
यहां उल्लेखनीय है कि समलैंगिकों के हित केलिए काम करने वाली संस्था नाज फाउंडेशन ने तो समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करवाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी और उसे कुछ सफलता भी मिली। पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उन अंशों को अवैध करार दिया, जो दो वयस्कों के बीच पारस्परिक सहमति पर आधारित यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखते आए हैं। अदालत ने इसे भारतीय संविधान की धाराओं 21 (निजी स्वतंत्रता), 14 (समानता का अधिकार) और 15 (पक्षपात के विरुद्ध संरक्षण) का उल्लंघन माना। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उस पर ठप्पा लगा दिया। हालांकि अब भी समलैंगिक विवाहों या विवाहेत्तर समलैंगिक संबंधों को विधिमान्यता पर निर्णय होना बाकी है। हालांकि यह सही है कि दंड संहिता की जिस धारा के अंशों को अदालत ने असंवैधानिक करार दिया है, उनमें पिछले डेढ़ सौ साल में डेढ़ सौ लोगों को भी सजा नहीं दी गई, फिर भी अदालती फैसले का गहरा सांकेतिक महत्व है। इससे सामाजिक भय के कारण छिप कर समलैंगिक संबंध कायम रखने वाले लोगों को उन्मुक्त होने का मौका दे दिया। इस मसले का सबसे घिनौना रूप ये रहा कि जैसे ही कोर्ट का ठप्पा लगा समलैंगिक बेशर्म हो कर सड़कों पर आ गए।
ऐसे में चिंता का विषय ये है कि क्या जिस कृत्य को सामाजिक मान्यता नहीं और जिसे समाज निंदनीय मानता है, उसे केवल कानून के दम पर इतना प्रचारित किया जाना चाहिए। दिल्ली में  गे, लेस्बियन, बाईसेक्सुअल एंड ट्रांसजेंडर (जीएलबीटी) लोगों ने रैली निकाली थी। उनमें से एक कार्यकर्ता के हाथ में ली हुई तख्ती पर लिखा था- हेट्रोसेक्सुअल रिलेशनशिप्स आर नॉट नैचुरल, दे आर ओन्ली कॉमन। यानी पुरुष-महिला संबंध प्राकृतिक नहीं हैं, अधिक प्रचलित भर है। एक अर्थ में देखा जाए तो यह महज नारा नहीं था, बल्कि सामाजिक प्रतिबंधों के कारण चुप बैठे लोगों का उस समाज के प्रति मौन प्रत्युत्तर था, जिसने उन्हें लंबे समय से उन्हें हाशिए पर डाला हुआ है। ऐसे में जाहिर तौर पर समाज आज समलैंगिक संबंधों को परोक्ष वैधता प्रदान करने वाले दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से ठगा सा रह गया है।
मसले का एक पहलु ये है कि लैंगिक विभाजनों के संदर्भ में भारत में आए ये कुछ फैसले वास्तव में एक वैश्विक प्रक्रिया का हिस्सा हैं। पिछले एक दशक में अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य विकसित देशों में महिला-पुरुष संबंधों के दायरे में फिट न होने वाले लोगों के प्रति नजरिए में बदलाव की प्रक्रिया चल रही है। चर्च के भारी विरोध के बावजूद अमेरिका के अनेक प्रांतों में समलैंगिक जोड़ों के विवाह को मान्यता दे दी गई है। लिंजी लोहान जैसे हॉलीवुड के कलाकारों, एल्टन जॉन जैसे संगीत के दिग्गजों और अन्य क्षेत्रों की समलैंगिक हस्तियों ने खुले आम अपने संबंधों को स्वीकार कर इस वर्ग के लोगों का खुल कर सामने आने को प्रेरित किया। विश्व के अनेक देशों में नियमित अंतराल पर गे परेड होने लगी हैं। कुछ देशों में तो हॉटेस्ट गे कपल और हॉटेस्ट लेस्बियन कपल जैसी प्रतियोगिताएं भी हो रही हैं। पश्चिमी दुनिया का यह संदेश धीरे-धीरे विकासमान देशों तक भी पहुंच रहा है। अब वह हमें चौंकाता नहीं। एक सौ पंद्रह देशों ने इन्हें मान्यता दे दी है और 80 देश अब भी इसके लिए तैयार नहीं हैं और सऊदी अरब, ईरान, यमन, सूडान तथा मॉरीतानिया में ऐसे संबंध बनाने वालों को फांसी पर चढ़ाने की व्यवस्था है।
सच्चाई तो ये है कि समलैंगिता तो दूर, भारत में अभी तक विरपरीत लिंगियों के प्रेम को ही पूर्ण मान्यता प्राप्त नहीं है। बहुत से इलाकों में प्रेमी-प्रेमिका को फांसी पर लटकाने जैसी वीभत्स घटनाएं होती रहती हैं। ऑनर किलिंग भी एक बड़ी समस्या के रूप में उभर कर आ रही है। ऐसे लोगों का समान लिंगी व्यक्तियों के प्रेम को स्वीकार करना कम से कम भारतीय समाज के लिए तो बेहद कठिन है। भले ही इसे कानूनी मान्यता मिल जाए और समलैंगिता में रुचि रखने वाले निडर हो जाएं, मगर समाज तो उन्हें हेय दृष्टि से ही देखेगा।
वस्तुत: समलैंगिता मूल रूप से मानसिक विकृति है। जब प्राकृतिक और सहज तरीकों से किसी के काम की पूर्ति नहीं होती तो वह उसके विकृत रूप की ओर उन्मुख हो जाता है। अत: यह समाज का ही दायित्व है कि वह इस समस्या के समाधान की दिशा में काम करे। समलैंगिकता को बीमारी व मानसिक विकृति मान कर उपचारात्मक कार्यवाही की जानी चाहिए।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर
७७४२०६७०००

रविवार, जुलाई 17, 2011

मंत्रीमंडल विस्तार के अर्थ निकालना बहुत कठिन

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की ओर से हाल ही किए गए मंत्रीमंडल में एक ओर जहां गुरुदास कामत के इस्तीफे की पेशकश और वीरप्पा मोइली व श्रीकांत जेला की नाराजगी से कांग्रेस के अंदर अंतरविरोध उभर आया है, वहीं विपक्षी दल इस कवायद को बेमानी साबित करने पर तुले हुए हैं। एक ओर जहां सिंह का यह कहना कि यह यूपीए-दो का अंतिम मंत्रिमंडलीय फेरबदल है, यह संकेत दे रहा है कि उनकी कुर्सी को फिलहाल कोई खतरा नहीं है, लेकिन दूसरी ओर विस्तार में सोनिया गांधी व राहुल गांधी के वफादारों को तवज्जो मिलने से यह भी साफ है सिंह आज भी कठपुतली से अधिक कुछ नहीं हैं। हालांकि इस विस्तार से इस तरह कि मीडियाई अटकलों से मुक्ति मिल गई है कि मनमोहन सिंह हटाए जा रहे हैं और राहुल गांधी प्रधानमंत्री बन रहे हैं, लेकिन इस पर यकीन करना कुछ कठिन ही प्रतीत हो रहा है। कुल मिला कर राजनीति के दिग्गज जानकार भी इसे समझने की कोशिश कर रहे हैं कि आखिर इस विस्तार के क्या-क्या ठीक अर्थ हैं।
यह सही है कि सिंह को हटाए जाने और राहुल की ताजपोशी की अटकलों पर विराम दे कर देश में राजनीतिक स्थिरता कायम करने की दिशा में यह विस्तार काफी महत्वपूर्ण है। चारों ओर से घिरी सरकार के लिए यह संदेश देना जरूरी हो गया था। मगर पीछे के एजेंडे को समझना कठिन हो गया है। वस्तुत: यूपीए-2 की परफोरमेंस कमजोर रहने और विपक्ष की ओर से एक बार फिर मनमोहन सिंह को कमजोर व कठपुतली प्रधानमंत्री करार दिए जाने के कारण यह तय माना जा रहा था कि राहुल के लिए रास्ता बनाने के लिए इस विस्तार में राहुल के काफी चहेतों को स्थान देने की कोशिश की जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। दूसरी ओर मनमोहन सिंह की भी व्यक्तिगत इच्छा चली हो, ऐसा भी नहीं दिखाई दे रहा है। केवल सोनिया दरबार की चली है। इसका परिणाम ये है कि विस्तार को सिंह के निस्तेज और अप्रभावी फेरबल के रूप में आंका जा रहा है।
इससे कम से कम ये तो साफ है कि सिंह के निस्तेज चेहरे और नवगठित मंत्रीमंडल के भरोसे तो कांग्रेस के लिए आगामी चुनाव लडऩा काफी कठिन हो जाएगा। ऐसे में यह कयास अनपेक्षित नहीं होगा कि भले ही सिंह कुछ भी कहें, कांग्रेस राहुल के लिए कोई न कोइ रास्ता तो निकालेगी ही। यह भी साफ है कि ऐसा लुंजपुंज विस्तार गठबंधन की मजबूरी की वजह से नहीं, बल्कि कांग्रेस की आंतरिक संरचना के चलते हुआ है। मनमोहन सिंह कितने मजबूर हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यूपीए गठबंधन के घटक तृणमूल कांग्रेस से रेल राज्यमंत्री मुकुल राय ने रेल दुर्घटना के स्थल का दौरा करने से इंकार कर दिया। यह बात अलग है कि उनसे अब यह विभाग ले लिया गया है। विभाग बंटवारे से नाराज राज्यमंत्री गुरुदास कामत का इस्तीफा और श्रीकांत जैना का शपथ ग्रहण समारोह में नहीं आना भी यही इशारा कर रहा है कि सिंह की लीडरशिप में दम नहीं है। वे विवादास्पद मंत्री जयराम रमेश को हटाने की बजाय उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा देने को मजबूर हुए, भले ही उन्हें पर्यावरण मंत्रालय से हटा दिया गया हो। अपनी कमजोरियों और असफलताओं को छिपाने के लिए जिस गठबंधन की मजबूरी का सिंह बार-बार हवाला देते रहे, वही मजबूरी अब भी कायम है।  तभी तो द्रमुक से संबंध बेहतर नहीं रह पाने के बावजूद उसके लिए दो सीटें खाली रखी हैं। गठबंधन की मजबूरी का एक और बड़ा सबूत ये कि तृणमूल अध्यक्ष ममता के पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद रेल मंत्रालय तृणमूल के दिनेश त्रिवेदी का दर्जा बढ़ाकर उन्हें कैबिनेट में जगह दी गई।
हालांकि मंत्रिमंडल को व्यापक कहा जा रहा है, लेकिन इसे अभी अधूरा ही माना जाएगा। इससे सिंह के इस बयान पर यकीन करना कठिन हो गया है कि यह आखिरी विस्तार है। मंत्रिमंडल के बहुचर्चित पुनर्गठन में मनमोहन सिंह ने 'चार बड़ों' वित्त, गृह, रक्षा और विदेश मामले को नहीं छुआ और दूरसंचार तथा नागर विमानन सहित चार मंत्रालयों का अतिरिक्त प्रभार भी यथावत रहा। मंत्रिमंडल का पुनर्गठन करने की कवायद अभी अधूरी इस कारण भी मानी गई है कि कपड़ा और जल संसाधन के अतिरिक्त प्रभार क्रमश: आनंद शर्मा और पीके बंसल को ही दिए गए हैं। शर्मा के पास वाणिज्य एवं उद्योग और बंसल के पास संसदीय मामले पहले से हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल दूरसंचार का अतिरिक्त प्रभार संभाले हुए हैं, जबकि प्रवासी भारतीय मामलों के मंत्री वयालार रवि के पास नागर विमानन विभाग का अतिरिक्त प्रभार है। डीएमके के किसी प्रतिनिधि को राजा और मारन के स्थान पर मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया है। कुछ विभागों को अतिरिक्त प्रभार के तौर पर रखा गया है ताकि अगर डीएमके अपने प्रतिनिधि भेजना चाहे तो उन्हें मंत्रिमंडल में मुनासिब जगह दी जा सके।
कुल मिला कर ताजा मंत्रिमंडल विस्तार से न तो सरकार कोई संदेश दे पाई है और न ही सिंह की छवि में कोई सुधार हो पाया है। अंतिम बताए जाने के बाद भी विस्तार अधूरा ही है। राहुल के बढ़ते कदमों पर कुछ रोक जरूर दिखाई देती है, मगर वे ठहर जाएंगे और कांग्रेस हाईकमान फिर आगामी चुनाव सिंह के नेतृत्व में ही लड़े जाने  का साहस दिखा पाएगा, इस पर सहसा यकीन नहीं होता। लब्बोलुआब  इस विस्तार के ठीक-ठीक अर्थ निकाल पाना कठिन ही है।
 -तेजवानी गिरधर
tejwanig@gmail.com

रविवार, जुलाई 03, 2011

राहुल की ताजपोशी पर विवाद : कितना सही, कितना गलत?

नेहरू-गांधी खानदान के युवराज राहुल गांधी की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी की मांग करके कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने एक बार फिर राजनीतिकों को विवाद और चर्चा करने का मौका दे दिया है। एक ओर जहां कांग्रेस के अंदरखाने में इस पर गंभीर चिंतन हो रहा है, वहीं विपक्षी दलों ने इसे परिवारवाद की संज्ञा देने साथ-साथ मजाक उड़ाना शुरू कर दिया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर तो बाकायदा सुनियोजित तरीके से एक तबका इस विषय पर हंसी-ठिठोली कर रहा है।
आइये, जरा गौर करें दिग्विजय सिंह के बयान पर। उनका कहना है कि राहुल अब 40 वर्ष के हो गये हैं और उनमें प्रधानमंत्री बनने के सारे गुण और अनुभव आ गये हैं। सवाल ये उठता है कि क्या 40 साल का हो जाना कोई पैमाना है? क्या इतनी उम्र हो जाने मात्र से कोई प्रधानमंत्री पद के योग्य हो जाता है? जाहिर सी बात है उम्र कोई पैमाना नहीं है और सीधे-सीधे बहुमत में आई पार्टी अथवा गठबंधन को यह तय करना होता है कि वह किसे प्रधानमंत्री बनाए। तो फिर दिग्विजय सिंह ने ऐसा बयान क्यों दिया? ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसा उन्होंने इस कारण कहा है कि पूर्व में जब उनका नाम उछाला गया था तो विपक्ष ने उन्हें बच्चा कह कर खिल्ली उड़ाई थी। तब अनुभव की कमी भी एक ठोस तर्क था। लेकिन अब जब कि वे संगठन में कुछ अरसे से काम कर रहे हैं, विपक्ष को यह कहने का मौका नहीं मिलेगा कि उन्हें अनुभव नहीं है। उम्र के लिहाज से अब वे उन्हें बच्चा भी नहीं कर पाएंगे। और सबसे बड़ा ये कि जिस प्रकार विपक्ष ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठा कर उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचने के बाद भी पीछे खींच लिया था, वैसा राहुल के साथ नहीं कर पाएंगे। ऐसे में हाल ही पूर्व उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने एक नया पैंतरा खेला है। उन्होंने अपने ब्लॉग पर लिखा है कि कांग्रेस एक परिवार की जागीर हो गई है। ऐसा करके वे कांग्रेस में विरोध की सुगबुगाहट शुरू करना चाहते हैं। ऐसे प्रयास पूर्व में भी हो चुके हैं।
तार्किक रूप से आडवाणी की बात सौ फीसदी सही है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इस प्रकार परिवारवाद कायम रहना निस्संदेह शर्मनाक है। अकेले प्रधानमंत्री पर ही क्यों, यह बात केन्द्रीय मंत्रियों व  मुख्यमंत्रियों पर भी लागू होती है। राजनीति में परिवारवाद पर पूर्व में भी खूब बहस होती रही है। मगर सच्चाई ये है कि कोई भी दल इससे अछूता नहीं है। खुद भारतीय जनता पार्टी भी नहीं। कांग्रेस तो खड़ी ही परिवारवाद पर है। यदि बीच में किसी और को भी मौका दिया गया तो उस पर नियंत्रण इसी परिवार का ही रहा है। जब पी. वी. नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने और सोनिया गांधी राजनीति में न आने की जिद करके बैठी थीं, तब भी बड़े फैसले वहीं से होते थे। मनमोहन सिंह को तो खुले आम कठपुतली ही करार दे दिया गया है। एक ओर यह कहा जाता है कि वे सर्वाधिक ईमानदार हैं तो दूसरी ओर सोनिया के इशारे पर काम करने के कारण सबसे कमजोर भी कहा जाता है। मगर तस्वीर का दूसरा रुख ये है कि उन्हें कमजोर और आडवाणी को लोह पुरुष बता कर भी भाजपा मनमोहन सिंह के नेतृत्व में लड़े गए चुनाव में उन्हें खारिज नहीं करवा पाई थी। तब भाजपा की  बोलती बंद हो गई थी। अब जब कि मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में भ्रष्टाचार व महंगाई के मामले उफान पर हैं, उन्हें नकारा माना जा रहा है। इसी मौके का फायदा उठा कर दिग्विजय सिंह ने राहुल को प्रधानमंत्री के योग्य बताने का राग अलाप दिया है। समझा जाता है कि कांग्रेस हाईकमान भी यह समझता है कि दूसरी बार उनके नेतृत्व में चुनावी वैतरणी पार करना नितांत असंभव है, इस कारण पार्टी में गंभीर चिंतन चल रहा है कि आगामी चुनाव से पहले पाल कैसे बांधी जाए। यूं तो मनमोहन सिंह के अतिरिक्त कुछ और भी योग्य नेता हैं, जो प्रधानमंत्री पद के लायक हैं, मगर चूंकि डोर सोनिया गांधी के हाथ ही रहनी है तो उसकी भी हालत वही हो जाने वाली है, जो मनमोहन सिंह की हुई है। ऐसे में पार्टी के सामने आखिरी विकल्प यही बचता है कि राहुल को कमान सौंपी जाए। इसमें कोई दोराय नहीं कि परिवारवाद पर टिकी कांगे्रेस में अंतत: राहुल की ही ताजपोशी तय है, मगर पार्टी यह आकलन कर रही है कि इसका उचित अवसर अभी आया है या नहीं। इतना भी तय है कि आगामी चुनाव से पहले ही राहुल को कमान सौंप देना चाहती है, ताकि उनके नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाए। मगर अहम सवाल ये भी है कि क्या स्वयं राहुल अपने आपको इसके तैयार मानते हैं। देश में प्रधानमंत्री पद के अन्य उम्मीदवारों से राहुल की तुलना करें तो राहुल भले ही कांग्रेस जैसी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी का नेता होने और गांधी परिवार से ताल्लुक रखने के कारण सब पर भारी पड़ते हैं, लेकिन यदि अनुभव और वरिष्ठता की बात की जाए तो वह पिछड़ जाते हैं। यदि उन्हें अपनी समझ-बूझ जाहिर करनी है तो खुल कर सामने आना होगा। ताजा स्थिति तो ये है कि देश के ज्वलंत मुद्दों पर तो उन्होंने चुप्पी ही साध रखी है। अन्ना हजारे का लोकपाल विधेयक के लिए आंदोलन हो या फिर बाबा रामदेव का कालेधन के खिलाफ आंदोलन, इन दोनों पर राहुल खामोश रहे। इसके बावजूद यह पक्का है कि यदि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने चमत्कारिक परिणाम दिखाये तो फिर प्रधानमंत्री पद राहुल के लिए ज्यादा दूर नहीं रहेगा। रहा मौलिक सवाल परिवारवाद का तो यह आम मतदाता पर छोड़ देना चाहिए। अगर राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव लड़ती है तो जाहिर है कि विपक्ष परिवारवाद के मुद्दे को दमदार ढंग से उठाएगा। तब ही तय होगा कि लोकतंत्र में सैद्धांतिक रूप से गतल माने जाने वाले परिवारवाद की धरातल पर क्या स्थिति है।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर

बुधवार, जून 29, 2011

अन्ना हजारे की अक्ल आ गई ठिकाने

सारे राजनीतिज्ञों को पानी-पानी पी कर कोसने वाले, पूरे राजनीतिक तंत्र को भ्रष्ट बताने वाले और मौजूदा सरकार को काले अंग्रेजों की सरकार बताने वाले गांधीवादी नेता अन्ना हजारे की अक्ल ठिकाने आ ही गई। वे समझ गए हैं कि यदि उन्हें अपनी पसंद का लोकपाल बिल पास करवाना है तो लोकतंत्र में एक ही रास्ता है कि राजनीतिकों का सहयोग लिया जाए। जंतर-मंतर पर अनशन करने से माहौल जरूर बनाया जा सकता है, लेकिन कानून जंतर-मंतर पर नहीं, बल्कि संसद में ही बनाया जा सकेगा। कल जब ये कहा जा रहा था कि कानून तो लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए जनप्रतिनिधि ही बनाएंगे, खुद को जनता का असली प्रतिनिधि बताने वाले महज पांच लोग नहीं, तो उन्हें बड़ा बुरा लगता था, मगर अब उन्हें समझ में आ गया है कि अनशन और आंदोलन करके माहौल और दबाव तो बनाया जा सकता है, वह उचित भी है, मगर कानून तो वे ही बनाने का अधिकार रखते हैं, जिन्हें वे बड़े ही नफरत के भाव से देखते हैं। इस कारण अब वे उन्हीं राजनीतिज्ञों के देवरे ढोक रहे हैं, जिन्हें वे सिरे से खारिज कर चुके थे। आपको याद होगा कि अपने-आपको पाक साफ साबित करने के लिए उन्हें समर्थन देने को आए राजनेताओं को उनके समर्थकों ने धक्के देकर बाहर निकाल दिया था। मगर आज हालत ये हो गई है कि समर्थन हासिल करने के लिए राजनेताओं से अपाइंटमेंट लेकर उनको समझा रहे हैं कि उनका लोकपाल बिल कैसे बेहतर है?
इतना ही नहीं, जनता के इस सबसे बड़े हमदर्द की हालत देखिए कि कल तक वे जनता को मालिक और चुने हुए प्रतिनिधियों को जनता का नौकर करार दे रहे थे, आज उन्हीं नौकरों की दहलीज पर मालिकों के सरदार सिर झुका रहे हैं। तभी तो कहते है कि राजनीति इतनी कुत्ती चीज है कि आदमी जिसका मुंह भी देखना पसंद करता, उसी का पिछवाड़ा देखना पड़ जाता है। ये कहावत भी सार्थक होती दिखाई दे रही है कि वक्त पडऩे पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।
आइये, अब तस्वीर का एक और रुख देख लें। जाहिर सी बात है कि विपक्षी नेताओं से मिलने के पीछे अन्ना का मकसद ये है कि यदि उनका सहयोग मिल गया संसद में उनकी आवाज और बुलंदी के साथ उठेगी। मगर अन्ना जी गलतफहमी में हैं। माना कि सरकार को अस्थिर करने के लिए, कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने के लिए विपक्षी नेता अन्ना को चने के झाड़ पर चढ़ा रहे हैं, मगर जब बात सांसदों को लोकपाल के दायरे में लाने की आएगी तो भला कौन अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगा। यह तो गनीमत है कि अन्ना जी जिस मुहिम को चला रहे हैं, उसकी वजह से उनकी जनता में इज्जत है, वरना वे ही राजनीतिज्ञ बदले में उनको भी दुत्कार कर भगा सकते थे कि पहले सभी को गाली देते थे, अब हमारे पास क्यों आए हो?
जरा अन्ना की भाषा और शैली पर भी चर्चा कर लें। सभी सियासी लोगों को भ्रष्ट बताने वाले अन्ना हजारे खुद को ऐसे समझ रहे हैं कि वे तो जमीन से दो फीट ऊपर हैं। माना कि सरकार के मंत्री समूह से लोकपाल बिल के मसौदे पर मतभेद है, मगर इसका अर्थ ये भी नहीं कि आप चाहे जिसे जिस तरह से दुत्कार दें। खुद को गांधीवादी मानने वाले और मौजूदा दौर का महात्मा गांधी बताए जाने पर फूल कर कुप्पा होने वाले अन्ना हजारे को क्या ये ख्याल है कि गांधीजी कभी घटिया भाषा का इस्तेमाल नहीं करते थे। उनके सत्य-आग्रह में भाषा का संयम भी था। यदि कभी संयम खोया भी होगा तो उनकी मुहिम अंग्रेजों के खिलाफ थी, इस कारण उसे जायज ठहराया जाता सकता है। मगर अन्ना ने तो मौजूदा सरकार को काले अंग्रेजों की ही सरकार बता दिया। ऐसा कह के उन्होंने अनजाने में पूरी जनता को काले अंग्रेज करार दे दिया है। जब ये सरकार हमारी है और हमने ही बनाई है तो इसका मतलब ये हुआ कि हम सब भी काले अंग्रेज हैं। मौजूदा सरकार कोई ब्रिटेन से नहीं आई है, हमने ही लोकतांत्रिक तरीके से चुनी है। हम पर थोपी हुई नहीं है। कल हमें पसंद नहीं आएगी तो हम दूसरों को मौका दे देंगे। पहले भी दे ही चुके हैं। सरकार से मतभेद तो हो सकता है, मगर उसके चलते उसे अंगे्रज करार देना साबित करता है कि अन्ना दंभ में आ कर भाषा का संयम भी खो बैठे हैं। असल बात तो ये है कि वे दूसरी आजादी के नाम पर जाने-अनजाने देश में अराजकता का माहौल बना रहे हैं।
वे पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ईमानदार बता कर इज्जत दे रहे थे, मगर अब जब बात नहीं बनी तो उन्हें ही सोनिया की कठपुतली करार दे रहे हैं। हालांकि यह सर्वविदित है कि सरकार का रिमोट कंट्रोल सत्तारुढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी के हाथ में है, उसमें ऐतराज भी क्या है, फिर गठबंधन का अध्यक्ष होने का मतलब ही क्या है, मगर अन्ना को अब जा कर समझ में आया है। तभी तो कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो सीधे और ईमानदार आदमी हैं लेकिन रिमोट कंट्रोल (सोनिया गांधी) समस्याएं पैदा कर रहा है। कल उन्हें आरएसएस का मुखौटा बताए जाने पर सोनिया से ही उम्मीद कर रहे थे कि वह कांग्रेसियों को ऐसा कहने से रोकें और आज उसी सोनिया से नाउम्मीद हो गए।
बहरहाल, मुद्दा ये है कि उन्हें अपना ड्राफ्ट किया हुआ लोकपाल बिल ज्यादा अच्छा लगता है, और हो भी सकता है कि वही अच्छा हो, मगर उसे तय तो संसद ही करेगी। कम से कम अन्ना एंड कंपनी तो नहीं। यदि संसद नहीं मानती तो उसका कोई चारा नहीं है। ऐसे में यदि वे 16 अगस्त से फिर अनशन करते हैं तो वह संसद के खिलाफ कहलाएगा। सरकार की ओर से तो इशारा भी कर दिया गया है। उनके अनशन के हश्र पर ही टिप्पणियां आने लगी हैं। खैर, आगे-आगे देखिए होता है क्या?
आखिर में एक बात और। जब भी इस प्रकार अन्ना अथवा बाबा के बारे में तर्कपूर्ण आलोचना की जाती है तो उनके समर्थकों को बहुत मिर्ची लगती है। उन्हें लगता है कि लिखने वाला या तो कांग्रेसी है या फिर भ्रष्टाचार का समर्थक या फिर देशद्रोही। जिस मीडिया के सहारे आज देश में हलचल पैदा करने की स्थिति में आए हैं, उसी मीडिया को वे बिका हुआ कहने से भी नहीं चूकते। ऐसा प्रतीता होता कि अब केवल अन्ना व बाबा के समर्थक ही देशभक्त रह गए हैं। उनसे वैचारिक नाइत्तफाक रखने वालों को देश से कोई लेना-देना नहीं है।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर

शनिवार, जून 18, 2011

राजनीति की भेंट चढ़ गया बाबा रामदेव का आंदोलन

गांधीवादी अन्ना हजारे के सफल अनशन के बाद योग गुरू बाबा रामदेव का आंदोलन सफलता का किनारा छूते-छूते राजनीति के गर्त में डूब गया। बाबा रामदेव के अनशन स्थल पर हुई पुलिस कार्यवाही को लेकर जाहिर तौर पर व्यापक विरोध प्रदर्शन अब भी देशभर में जारी है, मगर सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि बाबा की नब्बे फीसदी मांगों पर सहमति के बाद भी सरकार पुलिस कार्यवाही करने को मजबूर हो गई और बाद में जारी अनशन को तुड़वाने में सरकार ने कोई रुचि नहीं ली?
सक्रिय राजनीति में संतों की भागीदारी कितनी उचित?
वस्तुत: मौलिक सवाल ये उठा कि क्या किसी संन्यासी अथवा योग गुरू को सक्रिय राजनीति करनी चाहिए, लेकिन इसे यह तर्क दे कर नकार दिया गया कि एक पवित्र उद्देश्य के लिए हर नागरिक को आंदोलन करने का मौलिक अधिकार है, ऐसे में बाबा को टोकना-रोकना ठीक नहीं है। इस सिलसिले में कहावत का उल्लेख प्रासंगिक लगता है, और वह ये कि कौआ चला हंस की चाल, खुद की चाल भी भूल गया। कमोबेश इसी स्थिति से बाबा रामदेव को गुजरना पड़ गया। अगर इतिहास पर नजर डालें तो संतों का राजनीति में आना सैद्धांतिक रूप से सही होते हुए भी उनका राजनीति करना खास सफल नहीं हो पाया है। बाबा रामदेव से पहले करपात्रीजी महाराज और जयगुरुदेव ने भी अलख जगाने की पूरी कोशिश की, मगर उनका क्या हश्र हुआ, यह किसी ने छिपा हुआ नहीं है। इसी प्रकार राजनीति में आने से पहले स्वामी चिन्मयानंद, रामविलास वेदांती, योगी आदित्यनाथ, साध्वी ऋतंभरा और सतपाल महाराज के प्रति कितनी आस्था थी, मगर अब उनमें लोगों की कितनी श्रद्धा है, यह भी सब जानते हैं। ठीक इसी प्रकार न केवल बाबा का आंदोलन राजनीति का शिकार हो गया, अपितु वे खुद भी विवादास्पद हो गए। कहां तो पूर्व में राजनेता उनके यहां आशीर्वाद लेने को आतुर रहते थे और कहां अब आरोपों की बौछार हो रही है।
भाजपा व आरएसएस का समर्थन पड़ गया भारी
इसके कारणों पर नजर डालें तो कदाचित इसकी एक वजह ये समझ में आती है कि वे राजनीति की डगर पर कुछ ज्यादा ही आगे निकल पड़े। आंदोलन की शुरुआत में ही उनकी ओर से की गई यह घोषणा कि सारी राजनीतिक पार्टियां भ्रष्ट हैं और वे अपनी पार्टी बना कर उसे चुनाव मैदान में उतारेंगे। गुरू तुल्य कोई शख्स राजनीति का मार्गदर्शन करे तब तक तो उचित ही प्रतीत होता है, किंतु अगर वह स्वयं ही राजनीति में आना चाहता है तो फिर कितनी भी कोशिश करे, काजल की कोठरी में काला दाग लगना अवश्यम्भावी हो जाता है। व्यवस्था और सरकार की आलोचना करते-करते जब उनके प्रहार सीधे कांग्रेस पर ही होने लगे तो प्रतिक्रिया में कांग्रेस ने भी उन पर निशाना साधना शुरू कर दिया। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने तो बाबा रामदेव के ट्रस्ट, आश्रम और देशभर में फैली उनकी संपत्तियों पर सवाल उठाते हुए उन्हें ढोंगी ही करार दे दिया। जहां तक भाजपा का सवाल है, वह पहले तो देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध अभियान के तहत निकाली गई जनचेतना रैलियों से अपने आपको अलग की रखे रही, लेकिन जैसे ही वे अनशन पर उतारू हो गए तो भाजपा व आरएसएस को लगा कि वे उनकी जमीन ही खिसका देंगे, इस कारण मजबूरी में समर्थन दे दिया। बाबा भी सहर्ष उस समर्थन को लेने को तैयार हो गए। बस यहीं गड़बड़ हो गई। बाबा रामदेव से गलती ये हुई कि वे अन्ना हजारे की तरह अपने आंदोलन को राजनेताओं से बचा नहीं पाए और जमाने में देशभर में सांप्रदायिक जहर उगलने वाली साध्वी ऋतम्भरा को ही मंच पर बैठा दिया। इसका परिणाम ये हुआ कि बाबा को भाजपा का मुखौटा होने का आरोप सहना पड़ा।
इसलिए बदल गई आंदोलन की दिशा
जहां तक उनके आंदोलन के कामयाब होते-होते बिखर जाने का सवाल है, बाबा सरकार से नब्बे प्रतिशत मांगों पर सहमति हासिल करने और अनशन समाप्त करने का लिखित आश्वासन देने के बाद भी अज्ञात कारणों से डटे रहे। खुद उन्होंने ही घोषणा कर दी कि दूसरे दिन बड़ी तादात में उनके समर्थक अनशन स्थल पर आएंगे। ऐसे में सरकार उनकी मंशा के प्रति आशंकित हो गई और मात्र योग कराने की अनुमति होने और समर्थकों की अधिकतम संख्या पांच हजार होने की शर्त का बहाना बना कर पुलिस कार्यवाही कर बैठी। आज तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि सरकार ने आखिर किस वजह से जानते-बूझते हुए भी दमन का रास्ता अख्तियार कर लिया।
और इस प्रकार घटा ली अपनी प्रतिष्ठा
बाबा रामदेव के आंदोलन को कुचलने की सर्वत्र भत्सर्ना हो रही है, लेकिन साथ ही बाबा की कुछ त्रुटियां भी चर्चा में हैं। एक ओर वे पुलिसिया कार्यवाही में महिलाओं व बच्चों की पिटाई पर रोते दिखाई दिए तो दूसरी ओर खुद महिलाओं के कपड़े पहन कर दो घंटे तक अनशन परिसर में दुबके रहे। इतना ही नहीं वहां से भागने का प्रयास भी किया। इसमें भी चतुराईपूर्ण दंभ प्रकट किया। इस कृत्य के लिए वे अपनी तुलना शिवाजी से कर बैठे। एक ओर सरकार की तानाशाही के लिए सोनिया गांधी को कटघरे में खड़ा करते रहे तो दूसरी ओर तीन दिन बाद ही व्यक्तिगत रूप से सरकार को माफ भी कर दिया। कैसी विडंबना रही एक ओर तो अत्याचार को लेकर पूरा देश आक्रोश में रहा, दूसरी ओर वे खुद की ढ़ीले पड़ गए। बाबा को अन्ना हजारे से तुलना करके भी देखा जा रहा है कि वे कई बार बड़बोलापन कर जाते हैं, जबकि अन्ना संयत हो कर तर्कपूर्ण बात करते हैं। उनकी कुछ मांगों ने भी लोगों को यह चर्चा करने का मौका दे दिया कि उन्हें कानून, आर्थिक ढांचे और वैश्विक राजनीति की पूरी समझ नहीं है और बाल हठ करते हुए आर्थिक भ्रष्टाचारियों को फांसी की सजा देने, बड़े नोट समाप्त करने, तकनीकी व डाक्टरी की लोक भाषा में शिक्षा जैसी मांगों पर अड़ रहे हैं।
कुल जमा एक पवित्र मकसद के लिए कामयाबी के निकट पहुंचा आंदोलन फिस्स हो गया। इसकी प्रमुख वजह की ओर अन्ना का ये इशारा कुछ समझ में आता है कि वे भले ही शीर्षस्थ योग गुरू हैं, मगर उनमें आंदोलन चलाने की राजनीतिक व कूटनीतिक समझ नहीं है।
-गिरधर तेजवानी

बुधवार, जून 08, 2011

क्या बाबा रामदेव खुद को भी माफ कर पाएंगे?

आज जब कि बाबा रामदेव के अनशन स्थल पर हुई पुलिस कार्यवाही को लेकर व्यापक विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है, जो कि उचित ही प्रतीत होता है, खासकर के प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के लिए तो बेहद जरूरी, मगर ऐसे में अनेक ऐसी बातें दफन हो गई हैं, जिन पर भी विचार की जरूरत महसूस करता हूं।
असल में हुआ ये है कि पुलिस की कार्यवाही इतनी ज्यादा हाईलाइट हुई है, मीडिया द्वारा की गई है, कि इस पूरे मसले से जुड़े अनेक तथ्य सायास हाशिये पर डाल दिए गए हैं। अगर किसी को समझ में आ भी रहे हैं तो केवल इसी कारण नहीं बोल रहा कि कहीं उसकी बात वक्त की धारा के खिलाफ न मान ली जाए। कि कहीं उसे कांग्रेसी विचारधारा न मान लिया जाए। कि उसे आज के सबसे अहम और जरूरी भ्रष्टाचार के मुद्दे का विरोधी न मान लिया जाए।
हालांकि मैं जानता हूं कि इस लेख में जो सवाल खड़े करूंगा, उनसे बाबा रामदेव के भक्तों और हिंदूवादियों को भारी तकलीफ हो सकती, मगर सत्य का दूसरा चेहरा भी देखना जरूरी है। चूंकि बाबा रामदेव का आंदोलन एक पवित्र उद्देश्य के लिए है, चूंकि वे एक संन्यासी हैं, चूंकि उन्होंने हमारे लिए आदरणीय भगवा वस्त्र पहन रखे हैं, चूंकि उनका कोई स्वार्थ नहीं है, इस कारण उनकी ओर से की गई सारी हरकतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
वस्तुत: जब ये सवाल उठा कि बाबा को केवल अपने योग पर ही ध्यान देना चाहिए और राजनीति के पचड़े में नहीं पडऩा चाहिए, यह तर्क दे कर उसे नकारा गया कि एक पवित्र उद्देश्य के लिए हर नागरिक को आंदोलन करने का मौलिक अधिकार है, ऐसे में बाबा को टोकना ठीक नहीं है। बात ठीक भी लगती है, मगर जो बाबा एक बार सारी राजनीतिक पार्टियों को गाली बक कर अपनी नई पार्टी बनाने की घोषणा कर चुके हैं, तो उन्हें भी उसी प्रकार आलोचना के लिए तैयार रहना होगा, जैसे ही अन्य राजनेता सहज सहन करते हैं। मगर दिखाई ये दिया कि उनके भक्त अथवा कुछ और लोग भगवा के सुरक्षा कवच पर प्रहार बर्दाश्त नहीं कर पा रहे।
चलो, बाबा की एक ताजा तरीन हरकत से बात शुरू करते हैं। एक ओर वे पुलिसिया कार्यवाही में महिलाओं व बच्चों की पिटाई पर रोने का नाटक करते हैं और पुलिस की बजाय उसे संचालित करने वाली सरकार और यहां तक सोनिया गांधी को कटघरे में खड़ा करते हैं तो दूसरी ओर तीन दिन बाद ही व्यक्तिगत रूप से माफ भी कर देते हैं। अव्वल तो उनसे माफी मांगी ही किसने जो उन्होंने माफ कर दिया। उन्हें ये गलतफहमी कैसे हो गई कि वे सरकार से भी ऊंचे हैं। कैसी विडंबना है कि एक ओर तो उनके समर्थकों पर अत्याचार को लेकर भाजपा सहित पूरा देश आक्रोश में है, दूसरी ओर वे खुद की ढ़ीले पड़ गए। यानि मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त। यानि उनका साथ देने वाले बेवकूफ हैं। इससे तो यह साबित होता है कि उनका कोई स्टैंड ही नहीं है। वे पल-पल बदलते हैं। एक ओर लोगों को योग के जरिए चित्त वृत्ति निरोध: का उपदेश देते हैं तो दूसरी ओर अपना चित्त ही स्थिर नहीं रख पा रहे। स्थिर रखना तो दूर, वैसे ही उद्वेलित होते हैं, जैसे आम आदमी होता है। जरा तुलना करके देखिए बाबा और अन्ना की भाषा का। आप देख सकते हैं लगातार टीवी चैनलों के केमरों से घिरे बाबा का। देशभक्ति के नाम पर जो मन में आ रहा है, बक रहे हैं, जबकि अन्ना हजारे ठंडे दिमाग से तर्कपूर्ण बात करते दिखाई देते हैं। बाबा देशभक्ति के नाम पर उत्तेजना फैला कर अपने आपको जबरन 120 करोड़ लोगों का प्रतिनिधि बताते हैं। इससे तो यही साबित होता है कि दंभ से भरे हुए बाबा योगाचार्य नहीं, बल्कि मात्र योगासनाचार्य और आयुर्वेदाचार्य हैं। व्यवहार से वे अपरिपक्व भी नजर आते हैं। दूसरी ओर गांधीवादी अन्ना खुद तो परिपक्व हैं ही, उनके साथी भी तार्किक और बुद्धिमान।
खैर, सवाल ये है कि सरकार को माफ करने वाले बाबा क्या खुद को कभी माफ कर पाएंगे? बेशक सरकार ने जो तरीका अपनाया, वह दुर्भाग्यपूर्ण था, मगर बाबा ने जो हरकतें कीं, वे उनके समर्थकों के लिए एक सदमे से कम नहीं हैं। चूंकि वे अपने भक्तों के लिए भगवान तुल्य हैं, इस कारण उनकी आलोचना करने में जरा हिचक होती है, मगर प्रश्न ये है कि अनशन और सत्याग्रह के नाम पर हजारों समर्थकों को एकत्रित करने वाले बाबा मौत से इतना घबरा गए कि खुद औरतों के कपड़े पहन कर महिलाओं के बीच दो घंटे तक दुबक कर बैठे रहे। इतना ही नहीं मौका पा कर भागने की भी कोशिश की। कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि महिलाओं के पिटने पर रोने का नाटक करने वाले बाबा खुद महिलाओं पिटता देख दुबके रहे। खुद की सुरक्षा की इतनी चिंता कि स्वयं उन्होंने महिलाओं से अपील की कि वे उनके चारों ओर सुरक्षा घेरा बना लें। ऐसा करके उन्होंने अपने आपको शिखंडी तक साबित कर दिया।
असल में अनशन का अर्थ होता ही ये है कि व्यक्ति अपने उद्देश्य के प्रति इतना अडिग है कि मौत को भी गले लगाने को तैयार है। तो फिर वे मौत से इतना जल्दी कैसे घबरा गए? ऐसे में उनका सत्याग्रह दो कौड़ी का साबित हो गया। मजे की बात देखिए कि इस पर वे कितना बचकाना जवाब देते हैं कि वे देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की रक्षा करने को मजबूर थे। जरा दंभ देखिए कि इस कृत्य के लिए वे अपनी तुलना शिवाजी से करते हैं, जबकि वे उनके चरणों की धूल भी नहीं हैं। एक बिंदु ये भी है कि वे ये आरोप लगा रहे हैं कि उनको मार देने का षड्यंत्र था। एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी समझ सकता है कि यह आरोप कितना थोथा है।
चलते रस्ते एक बात और भी कर लें। अनशन स्थल पर अचानक धारा 144 लागू करने और पांडाल में आंसू गैस छोडऩे की कानूनी विवेचना करने वाले ये भूल जाते हैं कि बाबा को योग करने के लिए अनुमति दी गई थी, वो भी अधिकतम पांच हजार लोगों के लिए, मगर वे वहां अनशन और आंदोलन पर उतारू हो गए और साथ ही हजारों लोगों को एकत्रित कर लिया। यदि पुलिस कानून-कायदों को ताक पर रख कर अत्याचार करने पर आलोचना की पात्र है तो बाबा भी कानून को धोखा देने पर निंदा के पात्र होने चाहिए। मगर नहीं, चूंकि वे एक पवित्र उद्देश्य के लिए ऐसा कर रहे थे, इस कारण इस बारे में चर्चा मात्र को पसंद नहीं किया जा रहा। पुलिस अत्याचार पर कानून की दुहाई देने वाले बाबा पुलिस अधिकारी की फीत उतारने वाली महिलाओं को बहादुर बता कर कौन से कानून की हिमायत कर रहे हैं? और अगर महिलाओं तक ने ये हरकत की है तो पुलिस ने भी ठोक दिया तो क्या गलत कर दिया। और सबसे अहम सवाल ये कि क्या योग के नाम पर जमा लोगों को तो पता नहीं था कि वे आंदोलन करने को जुटे हैं, वहां कोई लड्डू थोड़े ही बंटने वाले हैं।
एक उल्लेखनीय बात देखिए, सोते हुए लोगों, बेचारी महिलाओं पर अत्याचार की बात चिल्ला-चिल्ला कर कहने वाले ये तर्क देते हैं कि उन निहत्थे और निरीह लोगों से क्या खतरा था, मगर उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि क्या भीड़ का भी कोई धर्म होता है? उनके पास इस बात का जवाब है क्या कि बाबा ने दूसरे दिन और ज्यादा लोगों को निमंत्रित क्यों किया था? और कानून-व्यवस्था बिगड़ती तो कौन जिम्मेदार होता? क्या इस बात को भुला दिया जाए कि जिस विचारधारा वालों का समर्थन हासिल कर आंदोलन को बाबा आगे बढ़ा रहे हैं, उन्होंने बाबरी मस्जिद मामले में सरकार और कोर्ट को आश्वस्त किया था, मगर फिर भी बाबरी मस्जिद तोड़ दी। और मजे की बात ये है कि यह कह कर अपना पल्लू झाड़ लिया कि उन्होंने कुछ नहीं किया, भीड़ बेकाबू हो गई थी। सवाल ये उठता है कि उसी किस्म के लोग जब ज्यादा तादात में वहां जमा होते और कुछ कर बैठते तो उसके लिए कौन जिम्मेदार होता? बाबा तो कह देते कि उन्होंने कुछ नहीं किया, भीड़ बेकाबू हो गई थी। और ये सच भी है कि भीड़ जुटा लेना तो आसान है, पर उस पर नियंत्रण खुद उनके नेताओं का नहीं रह पाता है।
एक अहम बात और। शुरू से उन पर ये आरोप लग रहा था कि वे आरएसएस व भाजपा की कठपुतली हैं तो वे क्यों कर अपने आपको निष्पक्ष बताते हुए कांग्रेस सहित सभी पार्टियों को समान बता रहेे थे? मुद्दे को समर्थन देने के नाम पर आगे आई भाजपा को यह कह समर्थन लेने से क्यों इंकार नहीं किया कि उनका आंदोलन दूषित हो जाएगा? आंदोलन के पहले ही दिन उन्होंने किसी वक्त देशभर में सांप्रदायिक जहर उगलने वाले साध्वी ऋतम्भरा को पास में कैसे बैठा लिया? ऐसे में आंदोलन का दूसरा दिन किस ओर जाने वाला था, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। यदि उनमें जरा भी निष्पक्षता होती तो भाजपा को उनके मामले न पडऩे की कहते। जब पूरे देश के कुल गांवों की संख्या गिना कर वहां अपने समर्थक होने का दंभ भरते हैं तो उन्हीं के भरोसे रह लेते। लोग अभी नहीं भूले हैं अन्ना के अनशन वाली बात, जिसमें साध्वी उमा भारती व अन्य नेताओं को अन्ना के समर्थकों ने ही खदेड़ दिया था। यही फर्क है बाबा व अन्ना में।
 अब जरा बात कर लें बाबा की मांगों की। उनकी अधिकतर मांगें, ऐसी हैं जो जाहिर करती हैं कि बाबा को कानून, आर्थिक ढांचे और वैश्विक राजनीति की कितनी समझ है। वे मांग कर रहे हैं कि आर्थिक भ्रष्टाचारियों को फांसी की सजा दो, अब बाबा को कौन समझाए कि दुनिया में हिंसा करने वालों तक को फांसी की सजा नहीं दिए जाने पर चर्चा हो रही है और वे ऐसी बचकानी मांग कर रहे हैं। फिर बड़े नोट समाप्त करने की मांग भी ऐसी ही बाल हठ जैसी है। ये तो अर्थशास्त्री ही बता सकते हैं कि यह संभव और व्यावहारिक भी है या नहीं। सीधे प्रधानमंत्री का चुनाव और तकनीकी व डाक्टरी की लोक भाषा में शिक्षा जैसी मांगें भी हवाई ही हैं। रहा सवाल विदेशी बैंकों में जमा काले धन को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने का तो भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर आंदोलन करने वाले अन्ना हजारे और उसके विधि विशेषज्ञ भी मानते हैं कि यह आसान नहीं है और इसमें काफी वक्त लगेगा। चाहे सरकार कांग्रेस की हो या किसी और की, क्या उसमें इतनी ताकत है कि इसका आदेश एक पंक्ति में जारी कर दे?
सवाल ये उठता है कि जब आपको कुछ समझ ही नहीं है तो आप क्यों कर योग सीखने आए अथवा अपना इलाज करवाले आए लोगों को बेवकूफ बना कर फोकट नारे लगवा कर आंदोलित कर रहे हैं। खुद को गांधी के बराबर कहलवाने को आतुर बाबा को पता भी है कि गांधी जी गाधी जी कितना पढ़े थे, कितने योग्य थे, उनके प्रशंसक किस श्रेणी के लोग थे? भला कौन बाबा को समझाएगा कि भले ही आपको राजनीति करने का अधिकार है, मगर उसके लिए आपको विश्व की राजनीतिक स्थिति, वैदेशिक नियम और परस्पर संधियों, प्रोटोकोल आदि को समझना होगा। चलो ये मान भी लिया जाए कि आपको भले ही जानकारी नहीं है, मगर आपका उद्देश्य तो पवित्र है, तो क्या वजह है कि इसी मुद्दे पर संघर्ष कर रहे अन्ना हजारे में मंच पर नाच कर नौटंकी करने के बाद भी आप उनसे अलग ढपली बजाने लग गए। इतना ही आपने तो सिविल सोसायटी की हवा निकालने तक की बचकाना हरकत भी की।
आखिर में एक बात और। बाबा रामदेव ने भगवा कपड़े में राजनीति करके भले ही अपने संवैधानिक अधिकार का उपयोग किया हो, मगर असल में उन्होंने इन्हीं भगवा कपड़ों को कलंकित करने की कोशिश की है। बाबा की हरकतों के बाद अब कोई सच्चा योग गुरु भी शक की नजर से देखा जाएगा।
अब जरा बाबा के प्रमुख सहयोगी आचार्य बालकृष्ण की भी थोड़ी चर्चा कर ली जाए। एक ओर बाबा कह रहे थे कि बालकृष्ण किसी मिशन पर हैं, इस कारण सामने नहीं आ रहे, जबकि बाद में स्वयं बालकृष्ण ने सामने आने पर फूट-फूट कर रोते हुए बताया कि वे गिरफ्तारी के डर से बचने के लिए भटक  रहे थे। कैसा बहादुर सेनापति रखा है बाबा ने। देश भक्ति और देश को विश्व गुरू बनाने की मुहिम में जुटे बाबा व उनके सहयोगी की ये कैसी बहादुरी है कि गिरफ्तारी मात्र से घबरा रहे हैं। फूट-फूट कर रो रहे सो अलग। कहते हैं कि मैने तो सुना मात्र था कि पुलिस बर्बरता करती है, लेकिन देखा पहली बार। हो लिया ऐसे रोवणे देशभक्तों के रहते देश का कल्याण।
मैं यहां साफ कर देना चाहता हूं कि मैंने केवल तस्वीर के दूसरे रुख को ही प्रस्तुत किया है। एक रुख पर तो भेड़ चाल की तरह खूब चर्चा हो रही है। समझदार व नासमझ, सभी एक ही सुर में बोल रहे हैं। इसका मतलब ये कत्तई नहीं निकाला जाना चाहिए कि पहले रुख से मेरा कोई सरोकार नहीं है या फिर मैं देशभक्ति, भ्रष्टाचार आदि विषयों पर बाबा व अन्ना से इतर राय रखता हूं। यद्यपि तस्वीर का दूसरा रुख तार्किक आधार पर प्रस्तुत करने की पूरी कोशिश की है, पर मुझे साफ दिखाई दे रहा है कि दिमाग से नहीं बल्कि केवल दिल से हर बात को देखने वालों को ये बातें गले नहीं उतरेंगी। उलटे गुस्सा भी आ सकता है। मैं उन सभी से माफी मांगते हुए उम्मीद करता हूं कि इस लेख को दुबारा तार्किक बुद्धि से पढ़ेंगे। इसके बाद भी लानत देते हैं तो मुझे वह स्वीकार है।

 

मंगलवार, जून 07, 2011

आखिर उमा को थूक कर चाट ही लिया भाजपा ने

सिद्धांतों की दुहाई दे कर पार्टी विथ दि डिफ्रेंस का तमगा लगाए हुए भाजपा समझौता दर समझौता करने को मजबूर है। पहले उसने पार्टी की विचारधारा को धत्ता बताने वाले जसवंत सिंह व राम जेठमलानी को छिटक कर गले लगाया, कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा व राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की बगावत के आगे घुटने टेके और अब उमा भारती को थूक कर चाट लिया। असल में उन्हें पार्टी में वापस लाने के लिए तकरीबन छह माह से पार्टी के शीर्षस्थ नेता लाल कृष्ण आडवानी कोशिश कर रहे थे।
हालांकि राजनीति में न कोई पक्का दोस्त होता और न ही कोई पक्का दुश्मन। परिस्थितियों के अनुसार समीकरण बदलने ही होते हैं। मगर भाजपा इस मामले में शुरू से सिद्धांतों की दुहाई देते हुए अन्य पार्टियों से कुछ अलग कहलाने की खातिर सख्त रुख रखती आई है, मगर जब से भाजपा की कमान नितिन गडकरी को सौंपी गई है, उसे ऐसे-ऐसे समझौते करने पड़े हैं, जिनकी कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। असल में जब से अटल बिहारी वाजपेयी व लाल कृष्ण आडवाणी कुछ कमजोर हुए हैं, पार्टी में अनेक क्षत्रप उभर कर आ गए हैं, दूसरी पंक्ति के कई नेता भावी प्रधानमंत्री के रूप में दावेदारी करने लगे हैं। और सभी के बीच तालमेल बैठाना गडकरी के लिए मुश्किल हो गया है। हालत ये हो गई कि उन्हें ऐसे नेताओं के आगे भी घुटने टेकने पड़ रहे हैं, जिनके कृत्य पार्टी की नीति व मर्यादा के सर्वथा विपरीत रहे हैं।
लोग अभी उस घटना को नहीं भूले होंगे कि पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने वाले जसवंत सिंह को बाहर का रास्ता दिखाने के चंद माह बाद ही फिर से गले लगा लिया गया था। कितने अफसोस की बात है कि अपने आपको सर्वाधिक राष्ट्रवादी पार्टी बताने वाली भाजपा को ही हिंदुस्तान को मजहब के नाम पर दो फाड़ करने वाले जिन्ना के मुरीद जसवंत सिंह को फिर से अपने पाले में लेना पड़ा। इसी प्रकार वरिष्ठ एडवोकेट राम जेठमलानी का मामला भी थूक कर चाटने के समान है। भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से करने, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार देने, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लडऩे, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत करने और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने वाले जेठमलानी को पार्टी का प्रत्याशी बनाना क्या थूक कर चाटने से कम है।
पार्टी में क्षेत्रीय क्षत्रपों के उभर आने के कारण पार्टी को लगातार समझौते करने पड़े हैं। राजस्थान में अधिसंख्य भाजपा विधायकों का समर्थन प्राप्त पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के सामने आखिरकार भाजपा का शीर्ष नेतृत्व आखिरकार नतमस्तक हो ही गया। पहले उन्हें विधानसभा में विपक्ष का नेता पद से हटाने में पार्टी को काफी जोर आया। उन्हें राष्ट्रीय महामंत्री बना कर संतुष्ट किया गया, मगर उन्होंने राजस्थान नहीं छोड़ा। हालत ये हो गई कि संघ ने अपनी पसंद के अरुण चतुर्वेदी को प्रदेश अध्यक्ष पद पर तो तैनात कर दिया, मगर पूरी पार्टी वसुंधरा के इर्द-गिर्द ही घूमती रही। तकरीबन एक साल तक विधानसभा में विपक्ष का नेता पद खाली रहा और आखिरकार पार्टी को वसुंधरा को ही फिर से पुरानी जिम्मेदारी सौंपनी पड़ी। उसमें भी हालत ये हो गई कि वे विधानसभा में विपक्ष का नेता दुबारा बनने को तैयार ही नहीं थीं और बड़े नेताओं को उन्हें राजी करने के लिए काफी अनुनय-विनय करना पड़ा। इसे राजस्थान भाजपा में व्यक्ति के पार्टी से ऊपर होने की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। प्रदेश भाजपा के इतिहास में वर्षों तक यह बात रेखांकित की जाती रहेगी कि हटाने और दुबारा बनाने, दोनों मामलों में पार्टी को झुकना पड़ा। पार्टी के कोण से इसे थूक कर चाटने वाली हालत की उपमा दी जाए तो गलत नहीं होगा। चाटना क्या, निगलना तक पड़ा।
पार्टी हाईकमान वसुंधरा को फिर से विपक्ष नेता बनाने को यूं ही तैयार नहीं हुआ है। उन्हें कई बार परखा गया है। ये उनकी ताकत का ही प्रमाण है कि राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाईं, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया। ये वही जेठमलानी हैं, जिन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दिया, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए। जेठमलानी को जितवा कर लाने से ही साफ हो गया था कि प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास पार्टी की फं्रैचाइजी है, मगर असली मालिक श्रीमती वसुंधरा ही हैं।
कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के मामले में भी पार्टी को दक्षिण में जनाधार खोने के खौफ में उन्हें पद से हटाने का निर्णय वापस लेना पड़ा। असल में उन्होंने तो साफ तौर पर मुख्यमंत्री पद छोडऩे से ही इंकार कर दिया था। उसके आगे गडकरी को सिर झुकाना पड़ गया।
उमा भारती के मामले में भी पार्टी की मजबूरी साफ दिखाई दी। जिन आडवाणी को पहले पितातुल्य मानने वाली मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने उनके ही बारे में अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल किया, वे ही उसे वापस लाने की कोशिश में जुटे हुए दिखाई दिए। पार्टी से बगावत कर नई पार्टी बनाने को भी नजरअंदाज करने की नौबत यह साफ जाहिर करती है कि भाजपा सिद्धांतों समझौते करने को लगातार मजबूर होती जा रही है। हालांकि मध्यप्रदेश से दूर रखने के लिए उन्हें उत्तरप्रदेश में काम करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है, मगर एक बार पार्टी में लौटने के बाद उन्हें धीरे-धीरे मध्यप्रदेश में भी घुसपैठ करने से कौन रोक पाएगा।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर